कविता : इस सावन में भी....!

कविता : इस सावन में भी....!

कविता : इस सावन में भी....!

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सखि री....!
मानो या मत मानो...
सावन में भी हैं कुछ कमियाँ....
भले प्रेम अगन का....!
मालिक माने उसको सारी दुनिया
मन बावरा खेल खिलाए,
दोषी बनती अखियाँ....
तन-मन-हिय सब जलता जाए
हास रचाए सब सखियाँ...
गरम सांस जो पीर बढ़ाए,
इत-उत ढूँढू मैं साँवरिया...
झर-झर मोती गिरते जायें,
बढ़ती जाए आँखों की झइयाँ..
ताप बदन का बढ़ता जाए,
मन को सोहे ना कोई बतियाँ...
धक-धक करता जियरा हरदम,
कह ना पाऊँ मैं मन की बतियाँ...
बात-बात पर मन घबराए,
पकड़-पकड़ बैठूँ मैं छतियाँ...
दिन तो कैसे हू बीत ही जाए,
कैसे कहूँ सखी री...?
ना बीते ये सौतन रतियाँ...
सच मानो सखी री...
जो लिखना चाहूँ कछु,
मैं प्रियतम को पतिया...!
बैरी पवन भी बेग से आकर,
बुझा ही देता है दीपक-बतिया... 
पियर पात सा तन भा मोरा,
उपहास उड़ाती सब सखियाँ...
रोग-कुरोग को माने ना ये सब,
खेलन को सब कहती रसिया...
कजरी कब मन भावै मुझको,
जब तक ना देखूँ...!
मैं निज साजन-साँवरिया...
बैरी सावन है एक तऱफ,
पीर दुगुन कराती सखियाँ...
हरजाई साजन भी ना चेते,
कैसे होगी गलबहियाँ...!
सखी अब तो ऐसा लागे री
बीता सावन तो रीता रहा री
इस सावन में भी...मैं तो...?
दीन-हीन ही फिरूँ बावरी...!

* रचनाकार...
जितेन्द्र कुमार दुबे
(अपर पुलिस अधीक्षक)
 जनपद--कासगंज