जितेन्द्र बच्चन की कलम से विशेष लेख " फिर क्यों बढ़ रहा अपराध...? "

जितेन्द्र बच्चन की कलम से विशेष लेख " फिर क्यों बढ़ रहा अपराध...? "

जितेन्द्र बच्चन की कलम से विशेष लेख - " फिर क्यों बढ़ रहा अपराध... ? "

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            कानून सख्त है। पुलिस किसी भी आरोपी पर बाज की तरह टूट पड़ती है। प्रदेश के मुखिया और उनके मताहत कहते हैं सुशासन है। शासन-प्रशासन चुस्त-दुरुस्त है! ऊंचे ओहदे पर बैठे अफसरान लगातर समीक्षा करते रहते हैं। जरा-सी भी शक की गुंजाइस पर खुफिया एसेंसियां उस पर गिद्ध की तरह नजर रखती हैं। सरकार और उसके संगठन के पदाधिकारी भी गली-मुहल्ले में निगरानी रखने का दम भरते हैं। सांसद, विधायक और पार्षद तक मुख्यमंत्री को रिपोर्ट भेजने की बात करते हैं। आईजी, डीआईजी, पुलिस कमिश्नर और एसएसपी पर सीएम की पैनी नजर होती है, फिर अपराध क्यों बढ़ रहा है? बहन-बेटियों की इज्जत महफूज क्यों नहीं है? जिसकी सरकार है, उसी के विधायक की मां के कुंडल बदमाश कैसे लूट ले जाते हैं। एक बालिका और उसकी बहन को दिनदहाड़े उसके घर से खींचकर अगवा कर लिया जाता है। किसी छात्रा का सामूहिक दुष्कर्म कर अश्लील वीडियो बनाया जाता है। आबरू से खिलवाड़ कर हत्या कर दी जाती है। जिन्दा जलाने की हिमाकत की जाती है या मामले को खुदकुशी बताने के लिए बच्ची का शव पेड़ से लटका दिया जाता है।
कुछ दिन में नवरात्र और दुर्गा पूजा शुरू होगी। एक बार फिर नारी का महिमा मंडन करेंगे हम, उसकी पूजा-उपासना का उपदेश देंगे, लेकिन कुछ लोग दरिंदगी से बाज नहीं आएंगे। किसी भी लड़की का एमएमएस बनाकर वायरल कर देंगे। ऐसे लोगों को किसी कानून का डर नहीं लगता। कुछेक तो पुलिस से अपना याराना बताते हैं। आखिर इस तरह की फितरत कहां से आती है? कौन हवा देता है इनको? कहां से सह मिल रही है? ये बड़ा सवाल है। इस पर सरकार के सोचने के साथ-साथ हमें खुद भी गौर करना होगा। हमें यह समझना होगा कि दोस्ती में बैठकर जो लोग पहले दारू पीते हैं, वहीं फिर एक-दूसरे के दुश्मन क्यों बन जाते हैं? चोरी, डकैती और छिनैती की वारदात से आए दिन अखबार क्यों भरे रहते हैं। हम जिस समाज में रहते हैं, उसके लिए कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि हम पर कोई हमला करेगा तो हमारा पड़ोसी खामोश रहेगा और कोई गुंडा-बदमाश सरेबाजार किसी वारदात को अंजाम देगा तो लोग तमाशबीन बने रहेंगे।
दरअसल, हम अपना कर्तव्य भूलते जा रहे हैं। हमें सरकार पर ज्यादा और खुद पर कम भरोसा रह गया है। सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होता जा रहा है। संयुक्त नहीं एकल परिवार में यकीन रखने लगे हैं और जबसे अकेले हुए हैं, दबंग हम पर और हावी हुए हैं। हम बात-बात पर थाना-पुलिस और कोर्ट-कचहरी का रुख अख्तियार करते हैं लेकिन यह नहीं सोचते कि जितनी जनसंख्या है, पुलिस व्यवस्था उसकी आधी भी नहीं है। जितने मुकदमे हैं, उसके हिसाब से अदालतें और अहलकार मौजूद नहीं हैं। फिर हमें समय पर न्याय कैसे मिल सकता है? सहनशीलता खत्म होती जा रही है। धैर्य और विवेक से कोई निर्णय न लेकर आंधी-तूफान की तरह गुस्से में फैसला करते हैं।
आप खुद सोचिए- जिस समाज के पढ़े-लिखे लोग भी जाहिलों जैसा व्यवहार करते हैं, वहां अपराध क्यों नहीं बढ़ेगा? इसलिए यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम एक ऐसे समाज को विकसित करें जहां जिन्दा लोग मुर्दों की तरह न दिखें, बल्कि एक मर्द की तरह अपराध कि खिलाफ हुंकार भरें। हम ऐसे पार्षद, विधायक और सांसद को चुनें, जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ समाजसेवा करना हो। ऐसी पुलिस की व्यवस्था करें जो शरीफों को पहचाने और अपराधियों में दहशत पैदा करे। अंग्रेजों के जमाने के उन सभी कानूनों में बदलाव लाएं, जो दण्ड-विधान की राह में रोड़ा बनते हैं। उन पुलिसवालों को सजा दिलाएं जो अपराध में लिप्त होते हैं या रिश्वत लेकर अपराधियों का साथ देते हैं। उन जिम्मेदार लोगों को भी दंडित किया जाए, जिसकी वजह से अपराध को बढ़ावा मिलता है।
हमें चाहिए कि गुंडे-बदमाशों और अपराधियों का स्वागत-सम्मान न कर हम उनका सामाजिक बहिष्कार करें। एकसाथ उनका विरोध करें और किसी के साथ अन्याय हो रहा है तो उसे न्याय दिलाने के लिए तन-मन-धन से उसकी सहायता करें। विरोध करने के लिए किसी सरकार का विरोध न करें बल्कि सकारात्मक विचारों वाली सरकार का पूरी तरह से समर्थन करें। देश के कायदे-कानून और नियमों का पालन करें, तभी एक खुशहाल समाज का सपना साकार होगा। क्योंकि अपराध खत्म नहीं किया जा सकता लेकिन हम अपना नजरिया बदलकर उस पर अंकुश जरूर लगा सकते हैं।
*( लेखक देश के ख्यातनाम वरिष्ठ पत्रकार हैं... )