कविता : सबकुछ चलता है ....

कविता : सबकुछ चलता है ....

कविता : सबकुछ चलता है ....

**********************

भाई -भाई को छलता है,
राग -द्वेष में जग जलता है,
मैं पूछा,'ये क्या है भइये'?
वह बोला,'सब कुछ चलता है'।

अपने ही धोखा देते हैं,
अपने ही खोखा लेते हैं,
फीस डाक्टर की तुलना में 
ज्यादा अब 'सोखा' लेते हैं,

बुद्धि -विवेक धरे हैं घर में 
यहां हर कदम छल चलता है ,
मैं पूछा,ये क्या है भइये?
वह बोला,'सब कुछ चलता है '।

ज्ञानी पानी-पानी देखो,
मौज करें अज्ञानी देखो,
बाहर वाले जता रहे हक
कातर हिंदुस्तानी देखो।

जलन देखिए तो सरवर की,
शुचि से ज्यादा जल जलता है 
मैं पूंछा,'ये क्या है भइये' ?
वह बोला, 'सब कुछ चलता है '।

बदला मौसम खास न कोई,
निकट सभी हैं पास न कोई,
ऋतुएं घाल मेल भइं सारी,
जीवन में मधुमास न कोई,

जीवन है सबका ढलता है,
मानव सपनों में पलता है,
मैं पूछा,'ये क्या है भइए'?
वह बोला 'सब कुछ चलता है '।

उम्मीदों के महल बनाएं,
बहुत कठिन को सरल बनाएं,
बन सकता है अगर अमिय तो
क्यों हम उसको गरल बनाएं,

झूठ यहां अविरल चलता है,
सच को मसल-मसल चलता है,
मैं पूछा, ये क्या है भइए'?
वह बोला' 'सब कुछ चलता है '।

* कवि : सुरेश मिश्र

            ( मुंबई )