कविता : जज़्बात ...
कविता : जज़्बात ...
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कह रही हार क्यों अब मैं खुद से,
आसमाँ पर ही इक घर बना लूँ ।
पी के ग़म के समन्दर का पानी ,
अपने हाथों ही उसको सुखा लूँ।
अश्के स्याही से जो गम लिखे हैं,
उनको पढ़ना खुदा जानता है।
दे खुदा हौसला मुझको इतना,
गम मैं सारे ही अपने छुपा लूँ।
फूल काँटो के सँग रह के देखो,
दर्द सह के भी है मुस्कुराता।
मैं भी रो-रो के चाहे थकी हूं ,
चाहती हूँ की अब मुस्कुरा लूँ।
कैसी फितरत है दुनिया की देखो,
मिला जो भी रहा आजमाता।
इससे पहले हो जज़्बात चोरी,
खुद से खुद को ही क्योँ न चुरा लूँ।
जल चुकी लाश किश्तों में मेरी,
रूह से ही हूँ अब तक मैं ज़िन्दा।
वक़्त जाने का "रजनी" हुआ है,
चाँद तारो से खुद को सजा लूँ।
* कवयित्री ; रजनी श्री बेदी (जयपुर-राजस्थान )