एक विशेष कविता : कहां खो गया बचपन प्यारा ?
एक विशेष कविता : कहां खो गया बचपन प्यारा ?
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पैदा होते चढ़ा 'डायपर',
मम्मी-डैडी हुए 'हायपर'।
महंगे-महंगे तेल लगाएं,
धूप और बरसात बचाएं।
सिसकी भरते आज 'भर्थरी'
डेढ़ साल में चलो 'नर्सरी '।
उम्मीदों की है बलिहारी,
'एड्मीशन' की मारामारी।
शिशु का 'फ्यूचर' मंगलमय हो,
हे अंग्रेजी तेरी जय हो।
बस्ता है बच्चों से भारी,
गायब आंगन से किलकारी।
चंचलता-मुसकान नहीं हैं,
बच्चे अब भगवान नहीं हैं।
अब तो सब कुछ 'कोर्स' हो गया,
खुशियों से 'डायवोर्स' हो गया।
रिश्ते सभी बने सौदाई,
'इन्हें' संभाले बोतल-बाई।
तीन बरस के बड़े हो गए,
निज पैरों पर खड़े हो गए।
चालू 'ट्यूशन क्लास' हो गया,
'परसेंटेज' ही खास हो गया।
उम्मीदों के बोझ के तले,
हर सूं बचपन आज का पले।
जीवन के संग यूं मनमानी,
भूले खेल सभी मैदानी।
बच्चे मोबाइल के आदी,
चीख-चीख करती बरबादी।
हम सपनों में भटक रहे हैं,
यूं फांसी पर लटक रहे हैं।
ये अपनापन नहीं चाहिए,
घायल बचपन नहीं चाहिए।।
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बच्चे पैदा होते थे,
जब जी चाहे रोते थे।
टनों फूल बरसाते थे,
जब भी वह मुस्काते थे।
ये अनुभव है बरसों का,
तेल लगाते सरसों का।
दादी मालिश करती थी,
मानो 'पॉलिश' करती थी।
'टूकों' में लिपटाते थे,
जी भर धूप खिलाते थे।
नहीं किसी से डरते थे,
कथरी गीली करते थे।
चलें घुटुरुवन भइया थे,
मां के लिए कन्हैया थे।
नहीं कहीं भी बाधा थी,
हर बेटी ज्यों राधा थी।
बातें झेला करते थे,
खुलकर खेला करते थे।
ताकतवर सिलबट्टे थे,
पांच साल के पट्ठे थे।
सरकारी शालाएं थीं,
हर दिन नई कलाएं थी।
कहीं न घर में सख्ती थी,
इक लकड़ी की तख्ती थी।
नरकट-सेंठा लाते थे,
उससे कलम बनाते थे।
दुद्धी घोरी जाती थी,
तख्ती पोती जाती थी।
पॉकेट मनी न होते थे,
फिर भी हम कब रोते थे।
दिन भी कैसे-कैसे थे,
चूरन दो पैसे के थे।
बरफ मलाई खा जाएं,
जग का हर सुख पा जाएं।
गांव में मेले लगते थे,
भाव हमारे जगते थे।
मेले आने-जाने थे,
मिलते बस चार आने थे।
भोंगा खूब बजाते थे,
और जलेबी खाते थे।
त्योहारों में आला था,
खिचड़ी पर्व निराला था।
होली कितनी प्यारी थी,
बांस बनी पिचकारी थी।
दीवाली के रोले थे,
मिट्टी दिये, जॅंतोले थे।
स्कूलों में पढ़ते थे,
खुद ही जीवन गढ़ते थे।
मन में कहीं तनाव न था ,
खींचतान का गांव न था।
अमराई की छावों में,
रहते थे हम गांवों में।
बच्चे सब के होते थे,
मानो रब के होते थे।
डेबरी में पढ़ लेते थे,
हर सीढ़ी चढ़ लेते थे।
फेल हुए घर आते थे,
जीभर कूटे जाते थे।
टेंशन का बाजार न था,
प्रतिशत का व्यापार न था।
लक्ष्य पास हो जाना था,
नई क्लास को पाना था।
रात-रात कब जगते थे,
चश्में हमें न लगते थे।
खुशियां बिल्कुल सस्ती थीं,
कदम-कदम पर मस्ती थी।
शहरों में या गावों में,
अब जी रहे तनावों में।
सहमी-सहमी पीढ़ी है,
ये तनाव की सीढ़ी है।
देना है यदि अपनापन,
चलो बचाएं हम बचपन।
खुद से सीढ़ी चढ़ने दो,
आसमान में उड़ने दो।
यूं दबाव में मत पालो,
थोड़ी ममता दे डालो।
वरना सबसे पूछोगे,
बाबू रब से पूछोगे।
चंचल, नटखट और दुलारा,
कहां खो गया बचपन प्यारा।
* कवि : सुरेश मिश्र
( मंच संचालक एवम् हास्य - व्यंग्य कवि ) मुंबई...