सावन की विशेष कजरी : हरे रामा मुड़वा पे चढ़ी महंगाई, समुझि नहीं पाई रे हरी ...

सावन की विशेष कजरी : हरे रामा मुड़वा पे चढ़ी महंगाई, समुझि नहीं पाई रे हरी ...

सावन की विशेष कजरी : हरे रामा मुड़वा पे चढ़ी महंगाई, समुझि नहीं पाई रे हरी ...
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प्रियतम को परदेस गए कई महीने बीत गए, इस बीच न उन्होंने फोन किया न ही पैसा भेजा। घर में पैसा नहीं है,ऊपर से किसी भी मार्केट में जाइए, महंगाई आसमान पर है। नायिका ने प्रियतम को फोन किया -

हरे रामा मुड़वा पे चढ़ल महंगाई,
 *समुझि नहीं पाई रे हरी ।*

बावन रुपिया आलू होइ गइ,
अस्सी भइल टमाटर रामा,
हरे रामा कइसे केउ घरवा चलाई 
 **समुझि नहीं पाई रे हरी ।**

बिना कटे ही प्याज रोवावइ,
परवर आंखि तरेरइ रामा,
हरे रामा तरकारी कइसे केउ खाई 
 **समुझि नहीं पाई रे हरी ।**

दालि क हालि पिया मत पूछा,
दोहरा शतक लगउलेसि रामा,
हरे रामा बनिया बनल बा कसाई 
 **समुझि नहीं पाई रे हरी ।**

तेल क खेल प्रभू ही जानइं,
घी बनि गइल सपनवां रामा 
हरे रामा तड़का केउ कइसे लगाई 
 **समुझि नहीं पाई रे हरी ।**

कोहड़ा मोहड़ा लइ नहिं पावइ,
कटहर बनल मटनवां रामा,
हरे रामा काहें न केउ खिसियाई 
 **समुझि नहीं पाई रे हरी ।**

हरियर धनियां मुंह बिचकावइ,
मूड़ चढ़ी सरपुतिया रामा,
हरे रामा, बरखा किहेसि बेवफाई 
 **समुझि नहीं पाई रे हरी ।**

प्रिय सुरेश अब हमइ बतावा,
महंगा भइल मसलवा रामा,
हरे रामा, कइसे बने अब खटाई,
 **समुझि नहीं पाई रे हरी ।**

* रचनाकार : सुरेश मिश्र (मुम्बई )  (हास्य - व्यंग्य कवि एवं मंच संचालक)