कविता : भारतीय रेल, हमारी शान
कविता : भारतीय रेल, हमारी शान
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न कभी रुकती है,न कभी डरती है,
भारतीय रेल है ,क्या-क्या न करती है ।
कोहरे में, धूप में, बरसात में,
अविरल दौड़ती रहती रात में,
कई बार लड़कर,चकनाचूर होती हूं,
मगर कब अपनों से दूर होती हूं?
अपेक्षाओं के बोझ से दबी रहती हूं,
फिर भी गंगा की धारा-सी बहती हूं,
परदेश पहुंचाती हूं,अपनों से मिलाती हूं,
फिर भी लोगों से ताने ही खाती हूं,
यहां पर नहीं कोई दुविधा है,
जैसी सहूलियत,वैसी ही सुविधा है,
पैसे हैं तो टू टायर एसी भी है,
नहीं है तो स्लीपर और देसी भी है,
पैसे कम-ज्यादा खर्च करवाती हूं,
मगर,सबको एक साथ ही ले जाती हूं,
देश के कोने-कोने में पहुंचाती हूं,
तभी तो लाइफ लाइन कहलाती हूं,
नागरिक,पुलिस,फौज, किसान,
मैं ढोती रहती हूं पूरा हिंदुस्तान,
अटक से कटक,कश्मीर से कन्याकुमारी,
हर जगह भारतीय रेल की जिम्मेदारी,
फल,सब्जी,अनाज सब कुछ पहुंचायी हूं,
फिर भी लोगों से गालियां ही खाई हूं,
फौज देश की सुरक्षा करती है,
रेल देशवासियों की रक्षा करती है,
प्रकृति व मानव के कारण होते हैं लेट,
कभी-कभी तो बदल जाती है डेट,
यूं, लोग मेरे सिर पर भी चढ़ जाते हैं,
फिर भी हम उनको वक्त पर पहुंचाते हैं,
एक बार कभी मुंबई आइएगा,
विरार लोकल में चढ़कर दिखाइएगा,
लोकल से लोकल को लोकल में पहुंचाते ,
इतनी भारी भीड़भाड़,पर नहीं घबराते ,
मेरा दिल हो जाता है तार-तार,
जब लोग पत्थरों से करते हैं प्रहार,
वैसे तो मैं फूट-फूटकर रोती हूं,
फिर भी कभी आपा नहीं खोती हूं,
लोग मुंबई-कोलकाता जाते क्या?
बिना मेरे तीर्थाटन कर पाते क्या?
न धरम देखती हूं,न जात देखती हूं,
न दिन देखती हूं, न रात देखती हूं,
शहरों को जोड़ती हूं,जिलों को जोड़ती हूं,
मैं भारतीय रेल हूं,दिलों को जोड़ती हूं,
सुविधा देती हूं, संस्कार देती हूं,
लाखों लोगों को रोजगार देती हूं,
करोड़ों लोगों का आशियाना हूं,
परिवहन विभाग का ताना-बाना हूं,
रेल आपकी है, रेल हमारी है,
इसकी सुरक्षा,हम सबकी जिम्मेदारी है,
* कवि : सुरेश मिश्र
- प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य कवि एवं मंच संचालक (मुम्बई )