सुरेश मिश्र की कविता : ईमान बेचकर रोटी हमें खाना न पड़े
सुरेश मिश्र की कविता : ईमान बेचकर रोटी हमें खाना न पड़े
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बिना बुलाए किसी के भी घर जाना न पड़े,
ईमान बेचकर रोटी हमें खाना न पड़े,
मुझे इतना ही दे देना मेरे दाता मालिक
किसी के सामने ये हाथ फैलाना न पड़े,
करूं न काम कभी कोई भी ऐसा प्रभु जी ,
किसी के सामने भी,आंख चुराना न पड़े,
बनूं माचिस की वह तीली, दिये-चूल्हे जलाते हों
किसी का घर और बस्ती यूं जलाना न पड़े,
दुवाएं मां की अहर्निश हमें मिलती ही रहें,
दुवाओं के लिए वृद्धाश्रम तक जाना न पड़े,
रहूं जिस देश में वह वतन भी मां जैसा है,
मुल्क में वोट खातिर आग लगाना न पड़े,
स्वर्ग से सुन्दर मेरा देश अब भी है बाबू,
बिखरकर लोगों को इतिहास बताना न पड़े,
प्यार जो करते हैं तो जान लुटा देवें हम,
मगर लुटकर कभी भी हमको पछताना न पड़े।
मुहब्बत की कभी दूकान न होवे साहब,
मीरा,शबरी,राधा को ये भी बताना न पड़े,
'सुरेश' देश,सनातन को भूल मत जाना,
दौलत-ए-महल यहीं छोड़कर जाना न पड़े।
* कवि : सुरेश मिश्र ( मुम्बई )