कविता : जाति - पाँति
कविता : जाति - पाँति
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जाति - पाँति करते-करते
कहाँ थे , कहाँ आ गए
हो कोई मतलब तो
ज़ात पर आ गए
गिराना हो किसी को फ़र्श पर
तो जात पर आ गए
इंसान थे इंसानियत छोड़कर
गर्त में आ गए
जाति- पाँति करते-करते
कहाँ थे , कहाँ आ गए ।
औरत जात, मर्द जात
यहां तक ख़ुदा की भी जात
जात से मुहब्बत
जात की औक़ात
हर किस्म का तमाशा
और फिर तमाशे की भी जात
तमाशा करते-करते
परे अहसासों के आ गए
जाति - पाँति करते-करते
कहाँ थे , कहाँ आ गए ।
कागज़ात जात से
रिश्ते भी जात से
खून भी जात का
इज्ज़त भी जात से
कुएं ज़ात के
मंदिर ज़ात के
ना जाने कैसे-कैसे ख़ुदा
किस-किस जात के
लाद ली हैं भारी-भरकम
रिवाजों की आदतें
ढ़ोते-ढ़ोते वहशीपन पर आ गए
जाति -पाँति करते-करते
कहाँ थे , कहाँ आ गए।
बांट दी रंगतें लिबास की
जात के नाम से
टोपियां बिक रहीं
जात की पहचान से
दरवेश की जात बांट दी,
केशों की जात छाँट दी
खून बंट गया
सांसे बंट गईं
मुहब्बत घट गयी
अमन घट गया
कैसे रंजिशों के
माहौल में आ गए
जाति -पाँति करते-करते
कहाँ थे , कहाँ आ गए।
हवा की जात नहीं,
पानी की जात नहीं
बादल, बारिश, आसमान ने
कभी पूछा नहीं
मंदिर, मस्जिद, गिरजा,
गुरुद्वारे पर नाहक लड़ाई
दिल में हो मुहब्बत तो फिर
इनकी बात नहीं
समझ जा इंसान अब तो
काले बादल गहरा गए
जाति - पाँति करते-करते
कहाँ थे , कहाँ आ गए ....
* कवि - राजेश कुमार लंगेह