कविता : दिल है कि
कविता : दिल है कि ...
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दिल है कि बूढ़ा होने का नाम नहीं लेता
अभी कल ही तो बाइस का हुआ था
कल ही तो लाइफ में स्पाइस शुरू हुआ था
कल ही तो ख्वाइशों का अंबार था गरम जवां जोश का उफान था
वक्त बदला है पर यकीन नहीं होता
दिल है कि बूढ़ा होने का नाम नहीं लेता ।
मचलना दिल ने अब भी कहां छोड़ा है
नई धुनों पर थिरकने से भी कहां मुख मोड़ा है
बिन मौसम के भी बरसात होती है
इश्क की कहां कोई उम्र होती है
जमाना है कि जवानी सा मुकाम नहीं देता
दिल है कि बूढ़ा होने का नाम नहीं लेता ।
रंग वही ढंग वही, यार दोस्त भी संग वही
आंखों की कशिश, होंठों की मुस्कान, मन भी मलंग वही
कसक वही, सनक वही,
पहले सी उमंग वही
खुद को बेहतर साबित करना अब आम नहीं होता
दिल है कि बूढ़ा होने का नाम नहीं लेता ।
उम्र की दहलीज़ पर खड़े हैं
हम भी ज़िद पर अड़े हैं
लहू तो कुछ ठंडा हुआ है
पर बुढ़ापे का कहां एहसास हुआ है
रंग बिरंगे कपड़े से इंकार नहीं होता
दिल है कि बूढ़ा होने का नाम नहीं लेता।
* रचनाकार : राजेश कुमार लंगेह
( जम्मू )