कविता : अपनी गठरी मैं खोलूँ

कविता : अपनी गठरी मैं खोलूँ

कविता : अपनी गठरी मैं खोलूँ
**********************
 अपनी गठरी मैं खोलूँ, 
तुम भी कभी गांठे खोलो
कुछ जज्बातों के मोती मैं चुन लूँ 
कुछ तुम भी कभी पिरो लो
अपनी गठरी मैं खोलूँ, ...
कशमकश में काट रहे 
फासले कब से बांट रहे 
ना तू मुकम्मल ना मैं भी पूरा 
फिर क्यूँ खुद को हांक रहे 
थोड़ा मैं सिमटूं थोड़ी बाहें तुम फैला लो
अपनी गठरी मैं खोलूँ ...
वक़्त का क्या यकीन 
साँसों की डोर बड़ी महीन 
फिसले कब छूटे रूठे कब टूटे 
कहां कोई इतना जहीन 
मैं भी बदलूँ थोड़ा तुम भी समझोता कर लो 
अपनी गठरी मैं खोलूँ....
आ जा की इक अहद कर ले 
कभी मैं यकीन कर लूं कभी तुम भी मना लो
कभी मैं तेरा हो जाऊं मेरी किस्मत 
कभी तुम साथ हो लो
अपनी गठरी मैं खोलूँ, 
तुम भी कभी गांठे खोलो
कुछ जज्बातों के मोती मैं चुन लूँ 
कुछ तुम भी कभी पिरो लो।

* रचनाकार : राजेश कुमार लंगेह
                           ( जम्मू )