कविता : क्या बेच दूं कि अमीर हो जाऊं ?

कविता : क्या बेच दूं कि अमीर हो जाऊं ?

कविता : क्या बेच दूं कि अमीर हो जाऊं ?

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क्या बेच दूं कि अमीर हो जाऊं 
क्या बचा है क्या जोड़ा है 
जो बाजार ले आऊं 
क्या बेच दूं कि अमीर हो जाऊं 

गुरबत भी क्या चीज है यारों 
ना ही कोई दर, ना ही दरवाजा 
ना दूर तक उम्मीद कोई 
ना बांटे दु:ख कोई आधा 
दिल आंखें गुर्दा बताओ 
बाजार क्या लाऊँ 
क्या बेच दूं कि अमीर हो जाऊं ?

गिरवी रखूं क्या ज़मीर को 
तो फिर बचेगा क्या ?
हासिल कर लूं चाहे ख़ुदाई सारी 
सब पहले सा लगेगा क्या?
सुकून रूह को मिले खुद से कोई गिला नहीं 
ऐसा क्या बेच जाऊँ 
क्या बेच दूं कि अमीर हो जाऊं

बहुत सोचा कि गुरबत क्यूँ है 
क्यूँ मुफलिसी का आलम है 
खरीद फरोख्त की अदा नहीं 
सौदागर सा मैं ज़ालिम भी नहीं 
क्या-क्या बदलूँ
 क्या-क्या बदल जाऊँ 
क्या बेच दूं कि अमीर हो जाऊं

* रचनाकार : राजेश कुमार लंगेह                                 ( जम्मू )