कविता : अंतर्मन   

कविता : अंतर्मन    

          कविता : अंतर्मन

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मैं  करूं किस बात पे..
शिकवा शिकायत आपसे,
जब मेरी दुनिया शुरू.. और खत्म होती आपसे।

तुमने जिस भी रूप में.. ढाला मैं उसमे ढल गई,
इश्क ही था वो वजह.. कुछ कह सकी न आपसे।

ये नहीं था दर्द मेरा.. रिसता  नहीं था आंख से,
पर किया लाचार रूह ने.. जोड़ा ही रिश्ता आपसे।

कल बदल जाएगा सबकुछ..वो पल कभी क्या आएगा
ख्वाब सारे दर्द सारे.. कहने हैं अब भी आपसे।

खुद से ही दुख बांट के.. रोती भी हूं हंसती भी हूं,
क्यों बनी नादान 'रजनी' .. खाया धोखा आपसे।

* कवयित्री : रजनी श्री बेदी (जयपुर)