गज़ल : बाती...

गज़ल : बाती...

गज़ल : बाती...

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ज़िन्दगी के दीप की बाती रही हूँ।
जल के भी मैं गीत को गाती रही हूँ।

है मुक़द्दर में लिखा ये सोचकर,
ज़ख्म जिसने जो दिया खाती रही हूँ।

अपने लिए न लड़ सकी कमज़ोर थी मैं,
तभी तो दर्द बेपनाह पाती रही हूँ।

आंसूओं में भीग कर आँखें जो ठहरीं,
होश में उनको मैं खुद लाती रही हूँ।

ज़िंदा हो के जिंदा रहना आसां नहीं था,
 ढूंढ़ जीने की वजह  लाती रही हूँ।

फितरत नहीं 'रजनी' कहे की खुश नहीं वो,
ज़ुल्म ये भी ख़ुद पे मैं ढाती रही हूँ।

*कवयित्री : रजनी श्री बेदी
       (जयपुर-राजस्थान)