कविता : बस कर्म करो जितना पौरुष
कविता : बस कर्म करो जितना पौरुष
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कर के न लकीरों में उलझो,
मत भाग्य भरोसे पर रहना।
बस कर्म करो जितना पौरुष,
कोरा न रहे कागज कोना।।
चिन्ता से छय हो चतुराई,
आलस तन रोग ग्रसित होगा।
दो सौंप श्री हरि पद सबकुछ,
कांटों भरा मार्ग सरल होगा।।
सब दर्शक हैं और नट भी हैं,
नित-नित नव पात्र बदलता है ।
है डोर अदृश्य के हाथों में,
खींचें जैसा नर चलता है।।
जब तक तेरा-मेरा उर में,
डेरा डाले बैठा होगा।
हर सही ग़लत के निर्णय में,
हर पल विचलित जीवन होगा।।
सुख- दुःख कर्मों का प्रतिफल है,
ख़ुश रहकर के स्वीकार करो।
हर हाल में खुश रहना सीखो,
हरि इच्छा का सत्कार करो।।
* कवि : शास्त्री सुरेन्द्र दुबे "अनुज जौनपुरी"