आरोप-प्रत्यारोप की रस्साकशी और भारत की जनसंख्या नीति पर ब्रेक!

आरोप-प्रत्यारोप की रस्साकशी और भारत की जनसंख्या नीति पर ब्रेक!

आरोप-प्रत्यारोप की रस्साकशी और भारत की जनसंख्या नीति पर ब्रेक!

* मंगलेश्वर (मुन्ना) त्रिपाठी

      भारत में बढती जनसंख्या को लेकर भी रोज़ रोज़ नए नए विवाद पैदा होते रहते हैं। सबसे बडे़ गंभीर विषय पर राजनैतिक  रुप देते हुए एक विशेष समुदाय यह साबित करने की कोशिश करता हैं कि देश में जनसंख्या वृद्धि के लिए दूसरा समुदाय जिम्मेदार है | संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में अगले साल भारत में दुनिया की सबसे बड़ी जनसँख्या होने का आकलन किया गया है | देश में दुनिया की सबसे बड़ी युवा जनसंख्या होना सौभाग्य है, मगर अगर नीति-नियंता हर हाथ को काम न दे पायें तो यह गंभीर चुनौती के रूप में भी उभर सकती है।
कोरोना दुष्काल के बाद बडे़ पैमाने पर बेरोजगारी व महंगाई सबसे गंभीर विषय है। अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत की जनसँख्या के मामले में कहा जाता है कि भारत चीन को पीछे ढकेल देगा तो हमें उसके क्षेत्रफल, उपलब्ध संसाधन, रोजगार की स्थिति तथा नागरिकों के जीवन में निर्धारित अनुशासन पर भी गंभीर मूल्यांकन करना चाहिए। भारत को इस बात को लेकर चिंतित होना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र की जारी नवीनतम रिपोर्ट में वर्ष २०२4 में भारत के आबादी में नंबर एक होने की बात कही जा रही है, जबकि पूर्व में यह आकलन था कि यह स्थिति 2027 में आयेगी। मतलब साफ है तीन वर्ष पहले ही उस स्तर पर जनसंख्या पहुंच गई? यह इस बात का परिचायक है कि देश के नीति नियंता जनसंख्या नियोजन को लेकर उदार नीति अपना रहे हैं और परिवार कल्याण के प्रयास मन लगाकर नहीं किए जा रहे हैं। यह देश का दुर्भाग्य है कि कुछ वर्गों की तरफ से राजनीतिक लक्ष्यों हेतु तथा धार्मिक भावनाओं की दुहाई देकर जनसंख्या स्थिरीकरण के प्रयासों को पलीता लगाया जा रहा है। यह नहीं सोचा जा रहा है कि जहां देश के पास विश्व का महज ढाई फीसदी से कम भू-भाग है, वहीं करीब 18 प्रतिशत के लगभग जनसंख्या का बोझ होगा। ऐसे में हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी देना कैसे संभव हो पाएगा? यह पूरी दुनिया के लिये भी चुनौती है कि वर्ष 2024 के अंतिम महीनों में विश्व की जनसंख्या आठ अरब पार कर जायेगी। यानी पिछले एक दशक में एक अरब आबादी बढ़ चुकी है। वहीं चिंता की बात यह है कि आने वाले दो दशकों में पूरी दुनिया की आबादी में दो अरब लोग और जुड़ जायेंगे।
क्या कहा जाये कि  विश्व के गरीब व विकासशील देशों में ही ज्यादा जसंख्या है। एशिया में पूरी दुनिया की 60 प्रतिशत के करीब जनसंख्या रहती है जो मानव संसाधनों के विकास पर होने वाले खर्च की हकीकत बयान करती है। वहीं दुनिया के संपन्न देशों मे जनसंख्या नियंत्रण व स्थिरीकरण के लक्ष्य प्राप्त किये जा चुके हैं।
भारत जैसे देश में दुनिया की सर्वाधिक जनसँख्या का स्तर प्राप्त करना आने वाले कल की गंभीर चुनौतियों की ओर इशारा है। प्रसिद्ध विचारक माल्थस ने चेतावनी देते हुए कहा  था कि आने वाले समय में दुनिया में  खाद्यान्न का गंभीर संकट पैदा होगा क्योंकि जनसंख्या बीज गणितीय अनुपात से बढ़ती है और खाद्यान्न अंकगणितीय अनुपात से। जिससे खाने वाले मुंह व अनाज की उपलब्धता में बड़ा अंतर रह जाता है। माल्थस ने चेतावनी देते हुए कहा है कि अनियंत्रित जनसंख्या को नियंत्रण में लाने के लिये प्रकृति  स्वतः विनाशकारी कदम उठाती है।इस कदम का स्वरूप क्या होगा किसी को नहीं पता | भारत को जनसंख्या स्थिरीकरण व परिवार कल्याण की तरफ वैसे ही  कदम बढ़ाने होंगे। जैसे कि चीन ने 1979 में संतान नीति को कड़ाई से लागू किया था । कालांतरमें  चीन को उत्पादन केंद्र बनने व रोजगार के अवसरों में अप्रत्याशित वृद्धि के बाद सख्त नीति में ढील देने पड़ी और चीन ने अपने लक्ष्य को हासिल कर लिया है।
अध्ययन बताते है कि चीन में जनसँख्या को लेकर संस्कृति व सोच के स्तर पर बदलाव आ चुका है। जबकि चीन का क्षेत्रफल, संसाधन व रोजगार भारत के मुकाबले काफी ज्यादा है। साम्यवादी व्यवस्था का सख्त अनुशासन भी चीन की अतिरिक्त ताकत है। भारत को इस चुनौती के मुकाबले के लिये मानव संसाधनों व सेहत सेवाओं के संवर्धन पर ध्यान देना होगा। आधुनिक तकनीक के स्थान पर  श्रम प्रधान उद्योग तथा ग्रामीण विकास की संस्कृति पर बल देना होगा। जनसंख्या के बोझ से चरमराती शहरी सेवाओं को दुरुस्त रखने के लिये जरूरी है कि उद्योग-धंधों का विकेंद्रीकरण करके उन्हें ग्रामीण इलाकों में केंद्रित किया जाये। सेवा क्षेत्र में प्रतिभा निर्यात की रणनीति भी कारगर हो सकती है।