गज़ल : तो कैसे तुम कहानी बन सकोगे
गज़ल : तो कैसे तुम कहानी बन सकोगे
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गज़ल जैसी रवानी बन सकोगे,
कहो क्या रुत सुहानी बन सकोगे।
समझते ही नहीं हो जब नदी को,
तो क्या गंगा का पानी बन सकोगे।
मिले जो ज़ख़्म तुमसे पूछते हैं
कहो क्या ज़िंदगानी बन सकोगे।
करोगे जब निराले काम तुम कुछ,
न जिसका कोई सानी बन सकोगे।
मुखा़लिफ़ झूठ का होना पड़ेगा,
तभी तो खानदानी बन सकोगे।
न समझी ' भावना ' इस दास्ताँ की,
तो कैसे तुम कहानी बन सकोगे।
रचनाकार : भावना मेहरा ( आगरा )