कविता : हवा का झोंका हूँ मैं
कविता : हवा का झोंका हूँ मैं
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हवा का झोंका हूँ मैं
सरहदों में कहां कैद रहूँगा ,
दो पल की जिंदगी मेरी
कहाँ आबाद ताउम्र रहूँगा
हवा का झोंका हूँ मैं
सरहदों में कहां कैद रहूँगा ।
तालीम मेरी तूफानों ने की
तासीर मेरी बर्फ सी
बनना बिगड़ना किस्मत मेरी
कहां सबसे उलझता रहूँगा
हवा का झोंका हूँ मैं
सरहदों में कहां कैद रहूँगा ।
फ़ूलों से मिला तो खुशबु चुरा ली
सागर ने बूँदों से मुहब्बत करा दी
हजारों जज्बातों को किस-किस से कहूँगा
हवा का झोंका हूँ मैं
सरहदों में कहां कैद रहूँगा।
गम और खुशी में यहां फर्क़ ना हो
अपने बेगाने का यहां कर्ज ना हो
ऐसी दुनिया का अपना अदा फ़र्ज़ करूँगा
हवा का झोंका हूँ मैं
सरहदों में कहां कैद रहूँगा।
कहीं जुस्तजू अधूरी , कहीं बातें अनकही
हवा के तरंगो में दिल की रवानगी
जैसे भी हो हर लम्हे में जिंदादिल रहूँगा
हवा का झोंका हूँ मैं
सरहदों में कहां कैद रहूँगा।
* कवि : राजेश कुमार लंगेह
( जम्मू )