कविता : 1+1= ?
कविता : 1+1= ?
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एक जमा एक सिर्फ दो नहीं होता
मिल जाएं दोनों तो हिसाब वो नहीं होता
एक जमा एक सिर्फ दो नहीं होता ।
हो मुहब्बत तो फ़िर लैला मजनू कहाँ दो रहते हैं
लैला जमा मजनू फिर एक ही हो जाते हैं
साँस एक, एहसास एक और दर्द भी एक
जुदा हो जाएं तो फिर आधे-आधे रह जाते है
लैला के बिना मजनू की क्या है कीमत
एक जमा एक का गणित कहाँ सिर्फ दो तक सीमित
मिल जाएं राम-लक्ष्मण फिर ग्यारह हो जाते हैं
रावण जैसे दानव भी फिर मिट्टी हो जाते हैं
बल ,बुद्धि ,साहस से फिर निर्जीव हो जीवित
एक जमा एक का गणित कहाँ सिर्फ दो तक सीमित
मिल जाये कोई पगली मीरा, कृष्ण से फिर कहाँ कुछ रहता है
कौन मीरा कौन कृष्ण फिर कहाँ पहचान में आता है
मीरा कृष्ण दोनों शून्य करते हैं परिभाषित
एक जमा एक का गणित कहाँ सिर्फ दो तक सीमित
लाखों एक मिलकर एक देश बनाते हैं
कितने धर्म कितने प्रांत इसमें समाते हैं
एक नाम एक नमक एक निशान
हो जुदा कितने भी पर एक पहचान
एक भारत श्रेष्ठ ,खुशियां असीमित
एक जमा एक का गणित कहाँ सिर्फ दो तक सीमित।
*रचनाकार : राजेश कुमार लंगेह ( जम्मू )