हिंदी दिवस पर विशेष लेख : प्राचीन भारत में शून्य तथा अनंत की अवधारणाएं...

हिंदी दिवस पर विशेष लेख : प्राचीन भारत में शून्य तथा अनंत की अवधारणाएं...

हिंदी दिवस पर विशेष लेख : प्राचीन भारत में शून्य तथा अनंत की अवधारणाएं....

▪️ - डॉ. जितेन्द्र बच्चन 

        यह मानने के अनेक अकाट्य प्रमाण हैं कि विज्ञान का विकास  प्रत्यक्ष प्रकृति की विविधता एवम जटिलता में छुपी सममिती के संदर्भ में प्राचीन भारतीय ऋषियों की जिज्ञासा के साथ प्रारंभ हो गया था।  प्रकृति को घटकों एवम प्रक्रमो को मौलिक आधार पर समझने के ये प्रयास उन्हें प्रत्यक्ष परीक्षणों के क्षेत्र से बहुत आगे ले गए थे तथा तार्किक विश्लेषण के आधार पर वे परमाणु (पदार्थ संरचना का मुख्य घटक) तथा गणित में शून्य, अनंत, स्वतंत्र नौ अंको, ज्यामिति, त्रिकोणमिति, सममिति, बीजगणित, गति के नियमो, गुरत्वाकर्षण तथा ग्रहगति,  एवम अति सूक्ष्म वस्तुओ के  मापन में अनिश्चितता को समझने में पूर्ण रूप से सफल हुए थे। उन्होंने विज्ञान, प्रद्योगिकी , तथा विभिन्न दर्शनों को वेदांग एवम उपांग में सम्मिलित किया था जिनके आधार पर वैदिक ज्ञान को आत्मसात किया गया था। वेद ज्ञान के अक्षय श्रोत है तथा वेद वाक्य स्वयं में ही प्रमाण होता है। पुरुषसूक्त के द्वारा वेद ऋचाओ में निहित विज्ञान के सिद्धांतो को समझा जा सकता है। 
प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में अनेक वैज्ञानिक जिज्ञासाएं एवम उनके समाधान उल्लेखित हैं। इसी प्रकार अथर्वेद में चिकित्सा विज्ञान के अद्भुत ज्ञान का श्रोत है जिसके कारण आयुर्वेद को अथर्वेद का उपवेद माना जाता है। यजुर्वेद में भी विज्ञान एवम गणित के विभिन्न क्षेत्रों में अद्भुत शोध के संकेत मिलते है। चारो उपवेद( आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्थापत्यवेद तथा गन्धर्व वेद) विज्ञान की विभिन्न शाखाएं ही हैं तथा सभी वेदिक दर्शन ( सांख्य, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, योग एवम वेदांत) प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक शोध के भंडार है
प्राचीन भारतीय  दार्शनिकों तथा  मनीषियों ने जागृति की प्रारंभिक अवस्था में ही ब्रह्मांड की सम्मिति 
 के रहस्य को  समझ लिया था और यह जान लिया था कि इसका सुदृढ़ गणितीय आधार है तथा इसके किसी भी मौलिक प्रकरण का विस्तृत विश्लेषण करने  के लिए गणितीय शुद्धि की  एक निश्चित सीमा तक आवश्यकता है जिसके लिए कुछ गणितीय नियमों को जानना आवश्यक है । इन तथ्यों के प्रकाश में वेदांग ज्योतिष(1200 ई .पूर्व) में गणित को सभी प्रकार के विज्ञान के शीर्ष पर रखा गया था:
यथा शिखा मयूराना नागानाम    मनियो  यथा।
 तद्वयद वेदांग शास्त्रानाम गणितम मूर्धन संस्थितम।।
अर्थात:
 "जैसी मयूर पंख पर चांदोवे की शोभा है तथा नाग के  सिर पर नागमणि की शोभा है वैसे ही सभी वेदांग शास्त्रों में गणित की शोभा है जो सभी प्रकार के विज्ञानों के शीर्ष पर है।"
गणित में शून्य, अनंत, स्वतंत्र नौ अंको एवम दशमलव स्थान मान पद्धति की खोज  प्राचीन भारत में ही हुई थी। भारत में शून्य की खोज वैदिक युग में ही कर ली गई थी जैसा कि यजुर्वेद (40.17) में उल्लेखित है:
ॐ  खम ब्रह्म
जिसका अर्थ है कि ॐ तथा खम दोनो परमात्मा को अंकित करते हैं। वेदांग ज्योतिष में खम को शून्य के रूप में परिभाषित  किया है जिसके बिना परमात्मा  (अनंत ) को नही जाना जा सकता है ( परमात्मा को जानने के लिए चेतना में शून्य उत्पन्न करना अनिवार्य होता है ) ।
शून्य का विलोम अनंत होता है जिसका उल्लेख  यजुर्वेद (17/30) में निम्न प्रकार से किया गया है:

पूर्णमद पूर्णमिदम पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिस्यते।।

इसका अर्थ है कि अनंत अनंत से ही उत्पन्न होता है तथा इसके कुछ भी जोड़ने पर या इसमें से कुछ भी घटाने पर ये अनंत ही रहता है।
अथर्ववेद (10/8/29) में भी ये उल्लेखित है:

पूर्णाज्ञत पूर्णगम्य उद्चति पूर्णग्य पूर्णगैन सिच्यते।
उतो तद्द्य विद्याम यतः तत् परिषिच्यते।।

इस ऋचा का भाव है कि पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है,पूर्ण से ही पूर्ण सिंचित होता है। हम उस अनंत को जानने का सतप्रयत्न करें जिस पूर्ण से सब अभिसिंचित होता है। ज्योतिष आदि ग्रंथों में अनंत का खहर राशि के रूप में उल्लेख मिलता है।
चालुक्य साम्राज्य के नरेश सोमेश्वर (तृतीय) द्वारा रचित मनसोल्लासा में भारतीय संख्या तंत्र का विशद वर्णन मिलता है जिसके अनुसार संख्याओं के अठारह स्थान मान होते है: शून्य को 1 के पश्चात रखने पर संख्या का मन दस हो जाता है, 1 के पश्चात दो शून्य रखने पर संख्या शत तथा तीन शून्य रखने पर सहस्त्र हो  जाती है, उसी क्रम में 1 के पश्चात अठारह शून्य रखकर दीर्घ संख्याओं ( प्रारधा )की रचना का वर्णन इस ग्रंथ में हैं ।इसी क्रम में श्रीमद वाल्मिक रामायण के अष्टावीन सर्ग  33,37,39 में 1के बाद 62 शून्य रखकर  अति दीर्घ संख्या (शत महौध) का उल्लेख है। आधुनिक विज्ञान में अभी तक किसी भी ज्ञात प्रक्रम अथवा संरचना को विश्लेषित करने हेतु इतनी दीर्घ संख्या की परिकल्पना भी नही की गई है। आधुनिक विज्ञान में महत्तम  परिकल्पित संख्या अवोगद्रो संख्या ( 1 के बाद 23 शून्य) है। आधुनिक गतिक उत्सरजित कॉस्मोलॉजी में कल्पित स्ट्रॉन्ग ग्रेविटी में महत्तम संख्या 1 के बाद 48 शून्य है जो ब्रह्मांड तथा एटम की त्रिजियाओ के अनुपात का वर्ग है। अभी तक प्रकृति के  आधुनिक विज्ञान में प्रेक्षित किसी भी प्रक्रम अथवा संरचना में स्ट्रॉन्ग ग्रेविटी का कोई प्रमाण नहीं है। इसका अर्थ है त्रेता युग के भारतीय वैज्ञानिकों को प्रकृति के ऐसे रहस्यों का ज्ञान था जिन्हें विश्लेषित करने के लिए इतनी दीर्घ संख्या शत महौध ( 1 के बाद 62 शून्य  ) की आवश्यकता थी।
प्राचीन भारतीय शास्त्रों में दस गुणोत्तरी संख्या यथा लक्षांश, सहस्त्रांश, शतांश आदि शब्दावली भी प्रयोग में लाई गई है जिससे दशमलव की परिकल्पना वैदिक युग से ही परिलक्षित होती है। दस गुणोत्तरी संख्या प्रणाली भारतीय ऋषियों की जगत को अद्भुत देन है।
भारत ने विश्व को शून्य, अनंत, स्वतंत्र नौ संख्याएं, अति दीर्घ संख्यायें तथा अति लघु संख्यायें ही नहीं दी बल्कि उन्हें नाम भी दिए जो दश  हजार वर्ष बाद यूरोपियन देशों में जाकर  प्रसिद्ध हुवे, जैसा प्रोफेसर गिंसबर्ग ने स्वीकार किया,
 " सन 770 में  उज्जैन के निवासी कनक नाम के विद्वान  ने खलीफा अब्बास सयीयद अलमनसूर के निमंत्रण पर बगदाद जाकर हिंदू संख्याओं का ज्ञान दिया जो मिश्र होकर पश्चिम देशों में अरेबिक संख्याओं के रूप में पहुंचा और जहां उसे इल्मे हिंदसा के नाम से जाना गया।"
    भारतीय बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते हुए प्रसिद्ध वैज्ञानिक लैपलेस ने लिखा है,
" विश्व के समस्त गणितज्ञ तथा वैज्ञानिक हिंदुओं के बहुत आभारी हैं जिन्होंने शून्य, अनंत तथा दशमलव  स्थान मान की अद्भुत खोज की  जिसकी कल्पना आर्किमिडीज एवम अपॉलोनियस भी नही कर पाए थे।"
आज आवश्यकता है कि हमारे देश के छात्रों को प्राचीन भारतीय गणित एवम विज्ञान के विषय में भी अवगत कराया जाए ताकि उनमें मौलिक चिंतन की प्रवृति विकसित हो।

* ( लेखक देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक चिंतक हैं )