कविता : मनुष्य और मोबाइल !

कविता : मनुष्य और मोबाइल !

 कविता : मनुष्य और मोबाइल !
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युगों से धरती पर,हमारा बोलबाला है,
आदमी का हर एक अंदाज ही निराला है।

इसने किए नए-नए आविष्कार,
मानव सभ्यता को दिया आधार।

पहाड़ों पर डगर, समुद्र में घर बनाए,
तैरने के लिए घर में ही सरवर बनाए।

पहिया,बैलगाड़ी,साइकिल,कार बनाए
ट्रेन,प्लेन,जेट और राडार बनाए।

चाकू, तलवार और भाला बनाया,
हथियार एक से एक आला बनाया।

कट्टा, बंदूक, और तोप हम बनाए,
संहार करने वाले परमाणु बम बनाए।

रोज नई -नई गाथाएं गढ़ने लगे,
बिना पंख के भी आकाश में उड़ने लगे ।

घासफूस के घर से अट्टालिकाएं बनीं,
प्रचंड गर्मी में भी शीतल हवाएं बनी।

 मनुष्य का कोई नहीं सानी था
हमारे सामने हर कोई पानी था।

हर किसी पर हमारा कंट्रोल था
ईश्वर के बाद  हमारा ही रोल था।

हम बढ़ते रहे, सीढ़ियां चढ़ते रहे,
एक दुनिया में दूसरी दुनिया गढ़ते रहे,

हमने जिसे भी बनाया उसको वश में रखा,
हर आविष्कार को अपने तरकश में रखा,

नया सृजन,नया विजन,नया इस्टाइल
फिर हम लोगों ने बनाया एक  मोबाइल

मोबाइल गजब का आविष्कार बन गया 
ये मनुष्यों का सबसे पहला प्यार बन गया

पहले अजूबा था,फिर जरूरी बन गया,
देखते ही देखते,हमारी मजबूरी बन गया

मनुष्य और मोबाइल में कोई अंतर नहीं है
मोबाइल के डंसे का कोई मंतर नहीं है 

इसमें खर्च है, बीमारी है,नशा है,
कोई उबरा नहीं,जो इसमें फंसा है

मोबाइल ने अनेकों स्वरूप पाए हैं,
मनुष्य के सारे अवगुण इसमें समाए हैं।

ये सामने वाले को हर कदम तोलता है
आदमी की तरह झूठ पे झूठ बोलता है

बच्चों को कैसे झूठ बोलना सिखाता है
नैनी में हो तो भी झुमरी तलैया बताता है

कम पैसे वाले को कभी गम नहीं होता है
अधिक पैसे वाला बार-बार गरम होता है

वाटसप, फेसबुक, गूगल को समेटे है
बच्चे,बूढ़े,जवान सबको लपेटे है

बेटा-बेटी,बीबी साथ न हों तो भी चलता है
 मोबाइल के बिना आदमी हाथ मलता है

मोबाइल छोटा होवे या बड़ा है 
हर एक के पास दो-तीन पड़ा है

गर्लफ्रेंड जैसे बदले जा रहे हैं,
बिना खर्च के भी दले जा रहे हैं।

मनुष्य की कमजोरी सरेआम हो गई है 
बिना मोबाइल जिंदगी झंडू बाम हो गई है 

* कवि :  सुरेश मिश्र
( वरिष्ठ हास्य कवि एवम् मंच संचालक )   मुंबई .....