कविता : कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते
कविता : कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते
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कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते
सदियाँ हुई कोई धुन क्यूँ नहीं सुनाते
कब से प्यासी है यह मरुधरा
प्रेम की रसधार क्यूँ नहीं बरसाते
कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते ।
कुरुक्षेत्र में धर्म-अधर्म का फिर बोध है
वो गलत मैं सही का बस क्रोध है
किसी अर्जुन को गीता क्यूँ नहीं सुनाते
कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते।
बहुत घूम रहे हैं बेफिक्र शिशुपाल
नर पिशाचों के डर से है बुरा हाल
फिर से बेचूक चक्र क्यूँ नहीं चलाते
कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते
आज इन्दर फिर से रुद्र है
पृथ्वी पूरी जल मग्न है
आके गोकुल पर्बत क्यूँ नहीं उठाते
कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते।
कौरवों ने चौसर बिछा दी है
फिर कोई द्रोपदी पुकार रही है
आके उसकी लाज क्यूँ नहीं बचाते
कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते।
देखो कलयुग में सब चल रहा है
सच झूठ में झूठ सच में बदल रहा है, सच झूठकी पहेली क्यूँ नहीं बुझाते
कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते।
आ जाओ कि अब रूह की भी पुकार है
हठी नासमझी की खुमार है
आके फिर से वृंदावन क्यूँ नहीं बसाते
कृष्णा तुम बंसी क्यूँ नहीं बजाते।
* रचनाकार : राजेश कुमार लंगेह (बीएसएफ )