कविता : उधार की जिंदगी
कविता : उधार की जिंदगी
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कुछ लोगों का उधार रह गया
कुछ मैं लेना भूल गया
बस कुछ इस तरह से मैं
उधार की जिंदगी जी लिया ।
ना था तो थोड़ा भी बहुत था
ज्यादा मिला तो वो भी कम था
गुरबत थी तो उम्मीद हंसाती थी
अमीरी में कितना सारा गम था
उधार लूं या दूं की जंग मैं लड़ लिया
मैं उधार की जिंदगी जी लिया ।
सुकून ढूंढता रहा सिक्कों की खनक में
राह ढूंढता रहा तारों की चमक में
ना राह मिली ना सुकून
बस जलाता रहा यूंही खून
मैंने खून पसीना यूंही बहा दिया
मैं उधार की जिंदगी जी लिया ।
उधार की सांसें, उधार की धड़कन
उधार की उम्मीद, उधारी भटकन
यूंही उधार पर उधार लेता गया
मैं उधार की जिंदगी जी लिया ।
* रचनाकार : राजेश कुमार लंगेह ( जम्मू )