कहानी : स्वार्थ भरे रिश्ते !
कहानी : स्वार्थ भरे रिश्ते !
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"आज दफ्तर में काफी रौनक दिख रही है " अनुकल्प ने आते ही पूछा था ।
"साहब आप आज एक सप्ताह बाद आए हैं ना इसलिए आपको पता नहीं है ,आज रामप्रसाद साहब का आखरी दिन है दफ्तर में वो रिटायर हो जाएंगे " दफ्तर के चपरासी ने अनुकल्प को बताया ।
"अच्छा -अच्छा उन्होंने मुझे बता"या था ,पर मेरे दिमाग से बात निकल गई थी...अनुकल्प ने कहा ।
कुछ देर बाद सभी लोग दफ्तर के पार्टी हॉल मैं पहुंच गए थे ,हर कोई कुछ ना कुछ उपहार लेकर आया था.....
दफ्तर के लोगों के दिल में अपने लिए इतना प्यार देखकर रामप्रसाद जी की आंखें नम हो गईं थीं।
बाकी के लोग भी रो रहे थे ।
दूसरे दिन सुबह-सुबह उन्होंने अपने पत्नी से कहा "सुभद्रा मेरा टिफिन तैयार कर दो मुझे दफ्तर जाना है "
"अरे अब कौन से दफ्तर जाना है आपको ,आपको याद नहीं क्या आप रिटायर हो चुके हैं। अब आपका सिर्फ आराम करने का समय है ....सुभद्रा जी हंसते हुए अपने पति से बोली थीं।
"दरअसल काफी सालों से आदत लगी हुई है ना सुबह-सुबह तैयार होकर जाने की इसलिए मुझे याद नहीं रहा ..." रामप्रसाद जी मुस्कुराते हुए बोले ।
"अच्छा सुनो कल चीकू भी आ रहा है ,उसके दोनों बच्चों की छुट्टियां पड़ रही हैं। वह हमारे साथ ही रहेगा करीब एक महीने ,सुभद्रा जी अपने पति को बताया।
"चलो यह तो बहुत अच्छी बात है ,बच्चों के साथ मेरा भी समय कट जाएगा " रामप्रसाद जी ने कहा था !
चीकू अपनी पत्नी और दोनों बच्चों के साथ मां -पिताजी के पास आ गया ,बच्चे भी बहुत खुश थे अपने दादा -दादी के पास आकर ।
"चीकू हम जिस काम के लिए आए हैं, वह तो तुमने किया नहीं अवनी (चीकू की पत्नी )उससे बोली।
"थोड़ी तसल्ली रख लो ,मैं पिताजी से बात कर लूंगा" चीकू ने अपनी पत्नी को समझाते हुए कहा था ।
सभी बाहर बैठे "ड्राइंग रूम" में चाय पी रहे थे तभी चीकू अपने पिता से बोला -
"पिताजी मैं शहर में एक अच्छा सा घर देख चुका हूं और उसे खरीदना चाहता हूं ,अब आप रिटायर हो चुके हैं ।मैं चाहता हूं कि यहां का घर किराए पर लगाकर आप हमारे साथ शहर में रहने आ जाएं.." चीकू ने अपने पिता से कहा था।
"घर खरीदने के लिए पैसे हैं तेरे पास ? " रामप्रसाद जी अपने बेटे से पूछा।
" पैसे ही नहीं हैं मेरे पास इसलिए तो आपसे बात करने आया हूं, मैं चाहता हूं कि आप अपने रिटायरमेंट के सारे पैसे मुझे दे दें और उस पैसे से हम घर खरीद लेंगे" चीकू अपने पिताजी से बोला ।
रामप्रसाद जी ने अपने सारे पैसे बेटे को दे दिए ,पर उन्होंने उसके साथ शहर जाकर रहने की बात पर मना कर दिया ।
दूसरे दिन अवनी अपने कमरे में चीकू से बोल रही थी " मां -पिताजी हमारे साथ रहने शहर आएं या ना आएं ,हमें तो पैसे से मतलब था ,पैसे मिल गए बात खत्म ।"
संयोग से सुभद्रा उसी समय वहां से निकल रहीं थीं ,उन्होंने बेटे बहू की सारी बात सुन ली ...और अपने पति के पास आकर रोने लगीं।
" मां -बाप का अपने बच्चों के साथ एक अनमोल रिश्ता होता है ,वही बच्चे बुढ़ापे में मां-बाप का त्याग कर देते हैं...उन्हें सिर्फ पैसे और दौलत से मतलब रह जाता है "
रामप्रसाद जी नम आंखों से सारी बातें सुन रहे थे ।
* लेखिका : कविता सिंह ( ग्रेटर नोएडा )