वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की कलम से विशेष लेख...  "छुट्टियां....."

वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की कलम से विशेष लेख...  "छुट्टियां....."

वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की कलम से विशेष लेख....

     **** छुट्टियां ......

    क्या वाकई हम छुट्टियां मनाने जाते हैं? 
अक्सर हम लोग महानगरों की मशीनी ज़िंदगी की भाग दौड़ से कुछ पल के लिए आराम के पल बिताने जाते हैं। पर जहां हम जाते हैं, क्या वाकई हम आराम करते हैं? क्योंकि जहां हम घूमने जाते हैं, वहां जाने से पहले हम सोच लेते हैं की हमको वहां की सभी खूबसूरत जगहें घूमनी हैं, उस जगह की खासियत देखनी हैं और फिर हम निकल पड़ते हैं उस शहर की सैर पर। और उस जगह को देखने के चक्कर में कब वो 2-4 दिन छुट्टियों के बीत जाते हैं, हमें पता ही नहीं चलता, और अंततः हम उन 2-4 दिन में भी थक जाते हैं, जो आराम ढूंढने आए थे वह तो मिला ही नहीं। बच्चे भी जो आराम की खोज में छुट्टियां मनाने गए थे, वो भी वापस आकर वही उबासी महसूस करते हैं, वही थकान उनके चेहरे पर होती है।दुसरी विशेष बात यह हैं कि परिवार के साथ जब धूमने जाये तब अपने अपने मोबाइल का कम से कम उपयोग करें और हो सके तो मोबाइल को भी कुछ दिन की छुट्टी दे दें। कोशिश करें की जब अतिआवश्यक हो तभी प्रयोग करें और जितना हो सके अपनों के साथ समय बिताएं। अन्यथा हम सब पास होते हुए भी दूर ही रहेगें, अपनी अपनी दुनिया में मगन। 

एक ज़माना हुआ करता था जब हम वाकई छुट्टियां मनाया करते थे। हम २-२ दिन की छुट्टियां भले ही ज्यादा नहीं लेते थे लेकिन जो हमारी गर्मियों की छुट्टियां होती थीं उसका जो एक या डेढ़ महीना जो होता था उसमें हम पूर्णरूप से छुट्टियां मनाते थे। जिस दिन हमारी छुट्टियां होती थीं, उसी दिन, शाम की ट्रेन से हम गांव के लिए निकल जाया करते थे। और उन छुट्टियों में से हम कुछ दिन दादी के घर रहते, तो कुछ दिन नानी के घर रहा करते थे। पर उन दिनों जो छुट्टियों में हम लोग को आनंद लेते थे, बिना किसी तनाव के छुट्टियां मनाते थे, उसकी बात ही निराली हुआ करती थी। आजकल वो बिना तनाव वाली छुट्टियां नहीं रहीं, छुट्टियों में भी वो तनाव बना रहता है। छुट्टियों में भी बच्चों की पाठ्यतर गतिविधियां ( extra curricular activities) चलती रहती हैं, तो उसमें बच्चे पूर्णरूप से आनंदमय होकर छुट्टियां नहीं मना पाते। वहीं हमारे जमाने की छुट्टियों में यह सब नहीं होता था, हम कुटुंब के सारे बच्चे साथ में मिलकर पूरा पूरा दिन धूप में खेला करते थे, गुल्ली डंडा, छुप्पम छुपाई, चोर सिपाही, मिट्टी के घरौंदे बनाना इत्यादि खेलों में मगन रहा करते थे। सीखने के लिए भी बहुत कुछ था, जहां दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा - चाची हमको रिश्तों की परिभाषा सिखाया करते थे, जीवन जीने की कला सिखाया करते थे, बड़ों का आदर सम्मान करना सिखाया करते थे।

अंत में मेरी सभी से यही गुजारिश है की बच्चों से उनका बचपन न छीनें, मैं मानती हूं कंपटीशन की दौड़ में यह सब जरूरी हैं किंतु एक महीना नहीं तो कम से कम उनको १५ दिन ऐसे जरूर दें जहां वो निश्चिंत होकर खेल सकें, अपना मानसिक विकास कर सकें, अपने बचपन को जी सकें, जिसकी सुनहरी यादों को वो समेट कर हमेशा अपने पास रख सकें। 

* मेरी सोच - मंजू मंगल प्रभात लोढ़ा