कविता : बादलों से बातें.... -राजेश कुमार लंगेह
कविता : बादलों से बातें....
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रूई दार बादलों पर बहे जाता हूँ मैं
देखकर सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं
हरारत जो हो रही है दिल में
खुद से ही कहे जाता हूँ मैं
अनकही ख्वाहिशों से बिखरे हैं बादल
टूटने , बिखरने ,पिघलने को तैयार
इसी कशमकश में आँखों में समंदर छलकाए जाता हूँ मैं
रूई दार बादलों पर बहे जाता हूँ मैं
देखकर सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं ।
क्या लाया हूँ साथ अपने, क्या कमा जा रहा हूँ
जिस उम्मीद से निकला था शहर से
पीछे दूर छोड़े जा रहा हूँ मैं
जैसे-जैसे पास घर आ रहा है सिकुड़ता जाता हूँ मैं
रूई दार बादलों पर बहे जाता हूँ मैं
देखकर सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं ।
कुछ तो था जो तोड़ आया था
रुख हवाओं का मोड़कर आया था
हर आंख से मुंह मोड़कर आया था
उन आँखों की वीरानियों को सोचे जाता हूँ मैं
रूई दार बादलों पर बहे जाता हूँ मैं
देखकर सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं ।
ख्वाबों के शहर में खूब चमका मैं
मेहनत, क़िस्मत से खूब छनका मैं
उम्मीद दर उम्मीद खनका मैं
उस चमक, उस खनक, उस छनक
में दबी आवाज को सुने जाता हूँ मैं
रूई दार बादलों पर बहें जाता हूँ मै
देख के सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं
यह घुटन सी जो हो रही है क्या है
यह नमी सी आँखों में है, क्या है
बादलों ने भी साथ छोड़ दिया, किसकी शह है
सोचकर सहमा जाता हूँ मैं
रूई दार बादलों पर बहे जाता हूँ मै
देखकर सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं ।
बरसना तो है बादल को
टूटना तो है ख्वाबों को
लौ चाहे कम हो पर चमकना तो है तारे को
उलझनों से दो-दो हाथ किए जाता हूँ मैं
रूई दार बादलों पर बहे जाता हूँ मैं
देखकर सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं
वक़्त की धूल जो लिपटी है मुझसे
परत दर परत उभरे जा रहा हूँ मैं
जहाँ-जहाँ से टूटा था जुड़ा जा रहा हूँ मैं
बहुत हो गयीं नादानीयां अब
घर की तरफ बढ़ा जाता हूँ मैं
रूई दार बादलों पर बहे जाता हूँ मैं
देखकर सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं
हरारत जो हो रही है दिल में
खुद से ही कहे जाता हूँ मैं
रूई दार बादलों पर बहे जाता हूँ मै
देखकर सफेद चादरें सोचे जाता हूँ मैं ।
कवि : राजेश कुमार लंगेह
( जम्मू )