डॉ. मंजू लोढ़ा की कलम से विशेष लेख "पति प्रेम का प्रतीक गणगौर पूजन"
डॉ. मंजू लोढ़ा की कलम से विशेष लेख "पति प्रेम का प्रतीक गणगौर पूजन"
गौरी या गणगौर पूजन को चिर पुरातन और चिर नूतन समझा जाता है। फाल्गुन कृष्ण की एकम से प्रारम्भ करके चैत्र शुक्ल की तृतीया तक गणगौर की पूजा की जाती है और अंतिम दिन उसका विसर्जन होता है। गौरी पूजन का महत्व जानकी जी द्वारा मनचाहा वर मांगने के लिए गौरी पूजन से समझा जा सकता है। इस पूजा और आशीर्वचन का रामायण में बड़ा ही मनोहारी वर्णन है –
‘मनु जाहि राच्यो मिलही सो वर सहज सुंदर सांवरो
करुणा निधान सुजान सील सनेहु जानत रावरो
एहि भाँति गौरी असीस सुनि सिय सहित हिय हरषिं अली
सीता भवानी हि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली।
पुराणों के अनुसार पार्वती ने शिव को वर रुप में पाने के लिये घोर तपस्या की। शिवजी ने प्रसन्न होकर पार्वती सें विवाह किया। पत्नी को इतना स्नेह और सम्मान दिया कि उसे अपना आधा अंग ही बना लिया। इसलिये ऐसी मान्यता हैं कि यह व्रत स्त्रियों के प्रति पति को प्रेम बढ़ाता है। इस व्रत के पालन से कन्याओं का विवाह शीघ्र होता है और उन्हे कुलीन, धनवान तथा विद्वान वर की प्राप्ति होती है।
राजस्थान की सूखी माटी में वसंत के आते ही उत्साह और उल्लास की मानो धूम मच जाती है। कुंवारी लड़कियाँ 16 दिन तक बड़े मनोयोग और चाव से शिवजी को अपना जीजा मानते हुए, सुंदर रंग बिरंगे वस्त्र पहनकर होली के दूसरे दिन से ही पूजा शुरु कर देती है। पहले दिन होली की राख और गोबर से पिंडिया यानी ढेले बनाकर उसे मिट्टी के कुंडे में रखकर दूब और फूल से 8 या 9 दिन तक पूजती है। इसके बाद शीतला सप्तमी या अष्टमी को बडी गणगौर बिठाई जाती है। इस दिन चिकनी मिट्टी से शिव (ईसरजी), पार्वती (गणगौर), कानीराम (कृष्णा), रोआँ (सुभद्रा) और मालिन की मूर्तियां बनाई जाती है और उनका श्रृंगार किया जाता हैं।
(कहते हैं कि आठ दिन तक पहले गणगौर अकेली अपने पीहर में थी। इसके बाद ईसरजी उन्हें लिवाने जाते है, तब उन्हें भी वहाँ रोक लिया जाता है वह भी आठ दिन तक वहाँ रुकते है। तब दामादजी की खूब खातिरदारी होती है – सुबह-दोपहर-रात को गीत गायें जाते है।)
लडकियाँ सुबह-सुबह नहाकर वंश के फैलाव की प्रतीक दूब और फूल लाने जाती हैं। साथ में गणगौर के गीत बड़े ही सुरीले लगते हैं। पूजा के समय भी गीत गाये जाते हैं। पहला मुख्य गीत है –
गोर ये गणगोर माता, खोल किंवाड़ी,
बायर (बाहर) उभी बायाँ (सब का नाम लिया जाता है) पूजणवाली,
पूजो ए पुजावो सैंय्यो क्या वर माँगो,
माँगा ये महे अन-घन-लाघर (वैभव) लिंछमी
कान्ह कंवर सो बीरो माँगा राई सी भौजाई
जलहर (पानी से भराबा दल) जाभी बाबल माँगा
रातादई (जिसने मेरे लिये अपनी नींद गंवाई) भायड
फूल पिछगेकड़, फूफो मांगा, भांडा पोवण भूता,
ऊंट चढ़यो भैंणोई मांगा, चुडलै वाली भैणल,
लाल दुमालै चाचो मांगा बिणजारी सी चाची।
इसी तरह गणगौर के हर विधा के अनेकों गीत हैं जो हमारी समृध्द लोकभाषा के प्रतीक है।
गोर गोर गोमती, इसर पूजे पार्वतीम्हे पूजा आला गिला, गोर का सोना का टिका,
म्हारे है कंकू का टिका,
टिका दे टमका दे, राजा रानी बरत करे
करता करता आस आयो, मास आयो,
छटो छ मास आयो, खेरो खंडो लाडू लायो,
लाडू ले बीरा ने दियो, बीरा ले भावज ने दियो
भावज ले गटकायगी, चुन्दडी ओढायगी
चुन्दडी म्हारी हरी भरी, शेर सोन्या जड़ी,
शेर मोतिया जड़ी, ओल झोल गेहूं सात,
गोर बसे फुला के पास, म्हे बसा बाणया के पास,
कीड़ी कीड़ी लो, कीड़ी थारी जात है,
जात है गुजरात है, गुजरात का बाणया खाटा खूटी ताणया
गिण मिण सोला, सात कचोला इसर गोरा
गेहूं ग्यारा, म्हारो भाई ऐमल्यो खेमल्या, लाडू ल्यो, पेडा ल्यो,
जोड़ जवार ल्यो, हरी हरी दुब ल्यो, गोर माता पूजल्यों।
विवाहिता स्त्रियां चैत्र सुदी तीज यानी पूजा के अंतिम दिन पूजा करती है तथा अपने सुहाग, पुत्र-पौत्रादि की लम्बी आयु का वर मांगती है।
वैसे तो भारत के प्रत्येक प्रांत में विशेषकर राजस्थानियों द्वारा गणगौर की पूजा की जाती हैं। राजस्थान में आज भी बीकानेर, जयपुर आदि स्थानों पर बहुत धुमधाम से गणगौर का बिंदोरा निकाला जाता है। गणगौर के दिन गणगौर तथा ईसरजी की मूर्तियों का विशेष रुप से श्रृंगार किया जाता है तथा उनकी पूजा काजल की टीकी, कुंकु की टीकी (9 की मात्रा) में एक पुठ्ठे के कागज पर लगाकर उनके सामने रखी जाती है। दूब से पानी का छींटा दिया जाता है तथा प्रसाद चढ़ाया जाता है।
अंत में बधावा गाया जाता है। इस गीत में स्त्री परिवार को अपना गहना बताकर अपनी सास को बधाई देती है।
‘म्हारै आंगण फूल्यों केवड़ो, पिछवाडै जी पसरी गजबेल
सहेल्यो ए आंबो मोरियो।
म्हारा सुसरोजी राजा राव, सासूजी म्हारी रतन भंडार।
* डॉ. मंजू लोढ़ा ( वरिष्ठ साहित्यकार एवं समाजसेविका) मुम्बई ....