वरिष्ठ पत्रकार विमल मिश्र की कलम से विशेष लेख : "मुंबई में भी घटा था एक ‘टाइटनिक !"

वरिष्ठ पत्रकार विमल मिश्र की कलम से विशेष लेख :  "मुंबई में भी घटा था एक ‘टाइटनिक !"

वरिष्ठ पत्रकार विमल मिश्र की कलम से विशेष लेख ....

"मुंबई में भी घटा था एक ‘टाइटनिक !"

_ तेज चल रही हवाओं से ऐसी विकराल लहरें उठीं कि ‘रामदास’ तिरछा होकर दाईं तरफ झुक गया। लोग बचने के लिए बाईं ओर भागे तो जहाज़ असंतुलित होकर पूरी तरह से पलट गया। और देखते ही देखते समुद्र के बिलकुल भीतर। यह सब कुछ केवल एक मिनट के भीतर घटित हो गया। “भारत का टाइटनिक” कहलाने वाले जिस हादसे ने 724 अभागे मुंबईकरों की अरब सागर में जीते - जी कब्र बना दे थी उसीकी मुंबई वासियों को घंटों तक खबर तक नहीं हो पाई थी। आज का कॉलम...


* विमल मिश्र


    मौत ने फंदा इस तरह कसा, कि कोई बेचारा बचने के लिए हाथ - पांव तक नहीं मार सका। अभी आधा घंटा जो हंसते - गाते, मजाक और मस्तियां करते खुशियों में मगन थे अब मुर्दा थे। ऊपर तेज बारिश के साथ चिघ्घाड़ता घनघोर मेघा और नीचे कुछ देर पहले जहां एस. एस. रामदास पोत की रौनकें थीं वहां अब था अरब सागर की भीमकाय लहरों का प्रलयंकारी गर्जन - तर्जंन। मौत तो अटल है, पर वह इस तरह आएगी कौन अंदाज लगा सकता था! 
‘इंडियन टाइटनिक’ का यह हादसा जो 724 अभागों को समुद्र में समा देने वाली भारतीय इतिहास की सबसे भीषण सागरी दुर्घटना के रूप में याद‌ किया जाता है देश की आजादी से ठीक एक महीना पहले घटा था। जब पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा था, मुंबई के परेल, लालबाग, गिरगांव जैसे इलाकों के साथ रेवास, अलीबाग, पेण, रोहा, जंजीरा, नंदगांव और मानगांव इलाकों के लोग समंदर के किनारों विलग हो गए मित्रों - संबंधियों के शवों की तलाश में जुटे हुए थे। मरने वालों में ज्यादातर मछुआरे व कारोबारी थे, उनमें भी मराठीभाषी, मुस्लिम और नौकरीपेशा। 90 फीसदी गरीब और मध्यवर्गीय।
सिर पर सवार थी मौत

     17 जुलाई, 1947 का वह दिन गटारी अमावस्या का था। सावन से पहले मनाया जाने वाला मौज - मस्ती त्योहार। छुट्टी का दिन होने से आम दिनों से कुछ ज्यादा ही भीड़ थी इस दिन। सुबह आठ बजे एस. एस. रामदास भाउचा धाक्का से रेवास जाने के लिए तैयार हो गया। कुल 778 लोग सवार हुए - 673 वैध यात्री, 48 खलासी, चार अधिकारी और 18 होटल स्टाफ। ऊपरी डेक पर परिवार के साथ कुछ अंग्रेज अधिकारी भी। सुबह आठ बजकर पांच मिनट पर वॉर्फ सुपरिटेंडेंट ने जैसे ही रवानगी की आखिरी सीटी बजाई इससे पहले कि जहाज की सीढ़ियां हटें, 35 बगैर टिकट यात्री भी दौड़कर जहाज पर लद लिये। 
     1000 यात्रियों की क्षमता वाला 406 टन वजनी और करीब 179 फुट लंबा व 29 फुट चौड़ा ट्विन स्क्रू पोत एस. एस. रामदास 1936 में स्कॉटलैंड की क्वीन एलिजाबेथ का जहाज बनाने वाली कंपनी स्वान और हंटर ने बनाया था। राष्ट्रवादी लोगों ने ब्रिटिश शिपिंग कंपनियों को चुनौती देने के लिए कोंकण तट पर ‘सुखकर बोट सर्विस’ की शुरुआत की थी, जो आगे चल कर ‘इंडियन कोऑपरेटिव स्टीम नेविगेशन कंपनी’ के नाम से मशहूर हुई। लोग इसे ‘माझी आगबोट कंपनी’ के नाम से पुकारते थे। कंपनी ने यह पोत खरीदकर ‘जयंती’, ‘तुकाराम’, ‘सेंट एंथनी’, ‘सेंट फ्रांसिस’, ‘संत ज़ेवियर्स’ आदि साधु- संत और भगवानों के नाम वाले अपने दूसरे पोतों की तरह इसे संत रामदास’का नाम दे दिया। ‘रामदास’ हफ्ते में पांच दिन गोवा और मुंबई के बीच चलता था और शनिवार को रेवस (अलीबाग) तक।
बीती शाम को भारी बारिश हुई थी, पर रवाना होने के समय मौसम साफ था। बारिश से बचने के लिए तिरपाल लगे हुए थे। अचानक ही भारी शोर और तूफानी हवाओं के साथ तेज बारिश होने लगी। भीमकाय लहरों में जहाज़ हिचकोले खाने लगा। सुबह के 8.35 बजे रामदास’ कोलाबा तट से 10 मील दूर गल्स आइलैंड (काश्याचा खाड़क) के निकट पहुंचा ही था कि धीरे - धीरे उसमें पानी भरना शुरू हो गया। जहाज में बहुत कम लाइफ जैकेट्स थे। जो लोग कुछ देर पहले एक-दूसरे से हंस - मुस्कुराकर बातें कर रहे थे उन्होंने अब लाइफ जैकेट्स के लिए लड़ना शुरू कर दिया। बाकी हाथ जोड़े और सजदे में खड़े थे ईश्वर से जान बचाने की गुहार करते हुए।
एक मिनट में डूब गया जहाज 
 हर ओर चीख - चिल्लाहट का माहौल। मौत सामने देख यात्रियों ने विलाप करना शुरू कर दिया। कप्तान शेख सुलेमान इब्राहिम और चीफ आफिसर आदम भाई यात्रियों से शांति बनाए रखने की अपील करने लगे, पर सुनता कौन! तेज चल रही हवाओं से इस बार लहरें ऐसी उठीं कि ‘रामदास’ तिरछा हो गया। और दाईं तरफ जैसे ही झुका सब बाईं ओर भागे। जिन्हें तैरना आता था उन्होंने फौरन समुद्र में छलांग लगा दी। कई लोग तिरपाल में ही फंस गए। करंजा-कासा के पास जहाज असंतुलित होकर अब पूरी तरह से पलट गया। और देखते ही देखते समुद्र के बिलकुल भीतर। डूबते वक्त कुछ बुलबुले उठे, फिर वह भी शांत। यह सब कुछ केवल एक मिनट के भीतर घटित हो गया। 
    ‘भारत का टाइटनिक’ कहलाने वाले इस हादसे ने 724 अभागों की जान ली, जिनमें कुछ गर्भवती महिलाएं भी थीं। सलामत रहने वाले खुशनसीब लोगों में 12 वर्षीय अब्दुल कैस, रुबिन ससून नामक यहूदी और दो ब्रिटिश, फ्रांसिस ड्राईिंग और एम. जी. मॉल थे। कुछ कर्मचारियों के साथ जहाज के कप्तान शेख सुलेमान इब्राहिम भी बच गए। कुछ ही वर्ष पहले 89 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।
घंटों पता नहीं चली हादसे की खबर
यह जमाना वायरलेस ट्रांसमीटर और रेडियो संचार का नहीं था। लिहाजा, जो जहाज सुबह नौ बजे से भी पहले डूब गया था, उसकी खबर शाम पांच बजे तक नहीं पहुंची। आम तौर पर रेवास पहुंचने में करीब डेढ़ घंटे का समय लेने वाला यह पोत जब शाम पांच बजे तक भी वहां नहीं पहुंचा तब जाकर ‌सबको चिंता हुई। बंदरगाह अधिकारियों को पहली खबर दिन तीन बजे हुई, जब तैरना जानने वाले, मछुआरों और लाइफ जैकेट की मदद से बचे कुछ लोगों ने ससून डॉक और रेवस पहुंच हादसे की जानकारी दी। इन्हीं खुशनसीबों में एक था 10 साल का बारकू मुकादम, जिसे एक गश्ती नौका ने बचाकर गेटवे ऑफ इंडिया तक पहुंचा दिया था। बारकू शेठ मुकादम के बारे में पिछली बार जब सुना गया था, तब वे 95 साल के थे। उनके साथ ही उस डूबते जहाज से जिंदा बच निकले थे 12 वर्षीय अब्दुल कैस, जो 89 वर्ष की उम्र तक जीवित रहे। 
इन लोगों से यह त्रासदी की खबर सुनकर घंटों बाद तेज बारिश की बीच बचाव और तलाशी अभियान शुरू किया गया। पर, जीवित लोग बहुत कम ही मिल पाए। एलीफेंटा द्वीप और बुचर आईलैंड पर और शहर के बंदरगाहों के किनारे कई बहते शव मिले। बुचर आइलैंड पर इनमें से एक 13 वर्षीय फ्रांसीसी लड़की ला बाउचर्डियर का था, जो अपने माता-पिता और 14 वर्षीय भाई के साथ जहाज पर सवार हुई थी। कुछ को छोड़कर जहाज में सवार बाकी लोग हमेशा के लिए खो गए। मुंबई पोर्ट ट्रस्ट ने जहाज का मलबा ढूंढने का निर्णय अगस्त, 1951 में किया। 13.8 लाख रुपये की लागत से यह जिम्मेदारी एक इतालवी फर्म को सौंपी गई, पर इससे पहले कि वह काम शुरू करती यह मलबा 1957 में बेलार्ड पियर के पास आप से आप उभर आया। 
     ‘रामदास’ दुर्घटना ने समूचे भारत को झकझोर दिया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ सरीखे कई संस्थानों ने पीड़ितों और पीड़ितों के परिवारों के लिए राहत कोष आरंभ किया। दो महीने बाद मरीटाइम कोर्ट ने जांच आरंभ की, जिसकी रिपोर्ट के मुताबिक शिपिंग कंपनी के दो अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया। मानसून में यात्री यातायात बंद करने का निर्णय हुआ। सभी जहाजों पर वायरलेस लगाना भी अनिवार्य कर दिया गया। 
     जिस शहर में भारतीय इतिहास का सबसे भीषण हादसा हुआ उसे भी आज उसकी कोई याद नहीं। जिन मछुआरों ने बचाव अभियान में हाथ बंटाया था उन्हें भारत सरकार ने पुरस्कार स्वरूप कॉलोनी के रूप में कुछ जमीन दी है, जो आज ‘बोदनी’ कहलाती है।  
         मुंबई या कहीं भी ‘रामदास’ दुर्घटना के मृतकों की याद में कोई स्मारक नहीं है। पर, गिरगांव के पुराने लोगों को वह बूढ़ा सा आदमी अभी तक याद है, जो हारमोनियम के साथ गाता फिरता था, ‘गेले ते बिचारे, जीव दर्या-तली गेले’। उन 724 अभागों की याद में, जो इस अभागे पोत के साथ अरब सागर के तल में अंतिम नींद सो रहे हैं। 
_( साभार : दोपहर का सामना )