कविता :  चलो इस बार दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं

कविता :  चलो इस बार दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं

कविता :  चलो इस बार दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं....

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चलो इस बार, 
दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं,
दीप से एक दीप जलाते हैं 
बुझे दियों को फिर से रोशन करते हैं,
पड़ोसी के घर का भी एक दीप जलाते हैं,
निर्धनों की बस्तियों में दीप बनकर जगमगाते हैं, 
नन्हें-नन्हें मासुम चेहरों की मुस्कान हम बन जाते हैं,
चलो इस बार, दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं।

सरहद पर शहीद हुए जांबाज सिपाहियों के,
घर आंगन में दीपों की माला बन कर जगमगाते हैं,
जो इस दीपावली पर घर नहीं लौट सकते,
उनके परिवार के संग मिल बांटकर पकवान खाते हैं,
चलो इस बार, दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं।

माटी का नन्हा सा दिया,
कितनी बड़ी सीख दे जाता है,
स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देना, 
घी, तेल, बाती का साथ होना, 
सब मिलकर अमावस्या को पूनम बना देते हैं,
चलो इस बार, दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं।

हम सब भी समाज के घटक हैं अगर, 
चाहे तो साथ मिलकर देश समाज में फैले,
अंधकार का नामोनिशान मिटा सकते हैं, 
चलो इस बार, दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं।

आओ बन जाए एक ऐसा दीपक, 
जलकर बुझने से पहले किसी की, 
आशाओं के विश्वास बन जाते हैं 
चलो इस बार, दिवाली कुछ ऐसे मनाते हैं।

* रचनाकार : डॉ. मंजू मंगलप्रभात लोढ़ा ( मुम्बई )