कविता - कलियुग
कविता - कलियुग
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कलियुग की इस वबा में देखो..बची नही अब शर्म है,
लगे हुए सब स्वार्थ में अपने..दीन है, न धर्म है ।
मासूम बच्चे भी कहां अब..महफूज़ इस जहान में,
हवस का बस बोलबाला..दरिंदो में कहां मर्म है।
षड्यंत्र ये रचके बहुत से..हक़ गरीबों के हड़पते,
मन काले उगले ज़हर ये..रखते उजली चर्म है।
दौलत की भूख हर तरफ..रिश्तों की चाह अब नहीं,
विवेक से है दूर कोसों
खून इनका गर्म है।
मर्यादाओं को तोड़ कर ..असूलों से मुख मोड़ना,
पीर देना हर किसी को..बना लिया कर्म है।
हर तरफ फैला रखा
है..जाल धोखेबाजी का,
रख कलेजा पत्थर सा..ऊपर से रहता नर्म है।
* कवयित्री : रजनी श्री बेदी जयपुर ( राजस्थान )