कविता : उम्मीद और तलब में फंसकर कहानी रह गयी
कविता : उम्मीद और तलब में फंसकर कहानी रह गयी ....
*कवि : राजेश कुमार लंगेह (जम्मू)
उम्मीद और तलब में फंसकर कहानी रह गयी
पानी के बुलबुले सी ज़िन्दगानी रह गयी
सोच समझ थी बहुत, बड़ा यकीन भी था मग़र
आधी से ज्यादा जिंदगी अनजानी रह गयी
उम्मीद और तलब में फंसकर कहानी रह गयी ।
वक़्त माहिर था चाल पर चाल चलता रहा
मैं अजब सा मदहोश ,बस अपनी ही धुन में चलता रहा
सोचता रहा मुझ सा है हर कोई
कैसे यह बदगुमानी हो गयी
उम्मीद और तलब में फंसकर कहानी रह गयी ।
छोटी छोटी बातों पर अटकता रहा
बेवजह हर रोज़ खुद से लड़ता रहा
कभी आधा कहा , कभी आधा किया
यह बातें भी पुरानी हो गयीं
उम्मीद और तलब में फंसकर कहानी रह गयी ।
अक्सर डरता रहा जो कभी हुआ नहीं
छू कर भी कभी किसी ने छुआ नहीं
कभी टूटा ,कभी कुछ छूटा, कभी रूठा
कुछ फितरत भी दीवानी सी रह गई
उम्मीद और तलब में फंसकर कहानी रह गयी।