कविता : मेरी रूह तक पहुंचना है तो रूह से देख...
कविता :
मेरी रूह तक पहुंचना है तो रूह से देख....
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मेरी रूह तक पहुंचना है तो रूह से देख
बना के रूह की आंखें रूह को भेद
फिर उतर उन गहराइयों में जहां मेरा अक्स भी नहीं पहुँचा है
महसूस कर मुझे रूह से जहां कोई शख्स नहीं पहुँचा है।
पिघल जाने दे फिर मुझे पाने-खोने का डर
देख लेना नहीं होता है रंगीन चेहरे का मुझ पर असर
शक्लों अक्लों से जिससे तुम्हें थी तकलीफ
सब रूह के सामने, रूह में सब है नाचीज़
रूह का सफर लंबा है
रूह से ही तय करना है
पाना है रूह से मुझको तो
रूह से लड़ना है
करना है कुछ मेरे लिये
तो रूह से ही करना है
आंखें , दिल, जिस्म सब धोखे देते हैं
भूख ,प्यास , लालच इनके मतलब होते हैं
रूह की आंखें रूह का दिल और रूह का जिस्म बना लो
ताउम्र होना है गर मेरा तो रूह में बसा लो।
रूह का सफर लंबा है
रूह से ही तय करना है
पाना है रूह से मुझको तो
रूह से लड़ना है
मेरी रूह तक पहुंचना है तो रूह से देख।
* कवि : राजेश कुमार लंगेह
( जम्मू )