कविता :  बाँध दी है उसने जब से पैरों में खानाबदोशी

कविता :  बाँध दी है उसने जब से पैरों में खानाबदोशी

कविता :  बाँध दी है उसने जब से पैरों में खानाबदोशी ....

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बाँध दी है उसने जब से पैरों में खानाबदोशी 
खूब रूह को सुकून देती तब से खामोशी 
बेताबी,  कभी बदहवासी का आलम रहता है 
लगता है  कभी जैसे जन्मों की हो बेहोशी 
बाँध दी है उसने जब से पैरों में खानाबदोशी ।

इक सफर के अंजाम से पहले                         दूसरे का आगाज हो जाता है 
इक मंजर पकड़ते ही दूसरा छूट जाता है 
थोड़ी मायूसी तो कभी थोड़ी है शाबाशी 
बाँध दी है उसने जब से पैरों में खानाबदोशी ।

कुछ तयशुदा नहीं सब वक़्त के हिसाब से 
ना कुछ नजाकत से ना कुछ लिहाज से 
ना ही कोई आरजू ना ही कोई सरफरोशी 
बाँध दी है उसने जब से पैरों में खानाबदोशी।

दर की ना चाहत ना ठिकाने की आरजू 
ना अपने ना पराये बस अनजाने हर सु
ना कोई नज़रेकरामात ना ही तख्तपोशी बाँध दी है उसने जब से पैरों में खानाबदोशी।

* रचनाकार : राजेश कुमार लंगेह ( बीएसएफ )