कविता : मैं कहाँ पनाह लूँ ….

कविता : मैं कहाँ पनाह लूँ ….

कविता :
                मैं कहाँ पनाह लूँ ….
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मैं कहाँ पनाह लूँ ..
छुआ जिस्म तो तेरा हुआ 
बसा दिल में जब से, फिर भी वो कहाँ मेरा हुआ 
रूहों की मुहब्बत की भी चर्चा है हर सू 
 बता दे मुझे, मैं कहाँ पनाह लूँ ....

कुछ नहीं पास सिवा तेरे 
दिलों जान सब तुझपे वारे 
और किस-किस को इम्तिहान दूँ 
बता दे मुझे मै कहाँ पनाह लूँ ....

रेत से लम्हे वक़्त के फ़िसल गये 
मेरे अक्स के नूर उम्मीदों में सिमट गये 
कब तलक जज्बातों को हवा दूँ 
बता दे मुझे मै कहाँ पनाह लूँ ....

नज़रे मिलीं तो ठहर गयीं 
एक लम्हे में हजारों ख़ाब बुन गयीं 
कब तक उलझी हुई राहों का तमाशा बनूँ 
बता दे मुझे मै कहाँ पनाह लूँ....

मजबूरियां के हालात ऐसे कि 
 साँसों में भी दर्द की कराह हो 
उलझी हुई जिंदगी ऐसे कि कोई गुनाह हो 
कब तक रह-रह कर तुम्हें आवाज दूँ 
बता दे मुझे मै कहाँ पनाह लूँ..…

ना फिज़ा की ना खिजां की 
ना उम्मीद कोई बहार की,
 ना बात तेरी रज़ा की 
बिखर रहा हूँ हर मौसम 
कब तलक यूहीं ही फ़ना होता रहूँ 
बता दे मुझे मै कहाँ पनाह लूँ....

* कवि : राजेश कुमार लंगेह
                        ( जम्मू )