गज़ल : क्या गिला करें हम जमाने से ?
गज़ल : क्या गिला करें हम जमाने से ?
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क्या गिला हम करें जमाने से,
रिश्ते भी अब लगे पुराने से।
कितने घायल से लग रहे सब,
गिर न जाएं ये मुस्कुराने से।
सूनी आंखों में दर्द की रेखा,
कहां जाती है खुद मिटाने से।
मोम से मैं भी हो गई पत्थर,
नही पिघली मैं चोट खाने से।
रोज खा खा के ठोकरें सबकी,
आंसू बहते नही बहाने से।
सहमे सहमे गुजर रहा जीवन,
क्या कहूं क्या बचा
निशाने से।
मेरे हिस्से की जीत को लेकर,
मिल रहा क्या बता हराने से।
खेल में अब नही उलझती मैं,
लुत्फ मिलने लगा जिताने से,
कब तलक साजिशों से डरते रहें,
कुछ न होगा तेरे डराने से,
फर्क अब क्या पड़ेगा "रजनी "को,
रखती ताल्लुक वो किस घराने से।
* - रजनी श्री बेदी ( जयपुर - राजस्थान )