कविता : पाँव- राजेश कुमार लंगेह
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कविता : पाँव
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पाँव की भी अजीब कहानी है
थोड़ी संजीदा थोड़ी इसमें नादानी है
गर्भ में पाँवों की सिहरन माँ को गुदगुदाती है
पालने में मचलते पाँव देख, फूले नहीं समाती है
लहराते पाँव ही बचपन की कहानी है
पाँव की भी अजीब कहानी है
थोड़ी संजीदा थोड़ी इसमें नादानी है
अठखेलियों पर थिरकते पाँव में बचपन बीत जाता है
बाली उम्र में पाँव थोड़ा भटकाता है
उम्र जैसे-जैसे बीते, पाँव जमीन बनाता है
कभी हौंसले से बढ़ने की तो कभी लड़खड़ाते पाँव की जवानी है
पाँव की भी अजीब कहानी
थोड़ी संजीदा थोड़ी इसमें नादानी है
मंजिलों तक कभी पहुंचे, कभी आधे सफर में पाँव भटके
कहीं कुछ पाँव साथ चले और कुछ ने हाथ झटके
कभी पाँव हवा में कहीं छालों भरी जवानी है
पाँव की भी अजीब कहानी
थोड़ी संजीदा थोड़ी इसमें नादानी है
कब्र में हो पाँव तो रूह कंपकंपाती है
वो पाँव जो सात फेरों में मिलकर चले थे
रह-रह कर याद उनकी आती है
कहां है वो हाथ वो उंगलिया पकड़कर
जिन्हें लिखी बचपन की कहानी है
पाँव की भी अजीब कहानी
थोड़ी संजीदा थोड़ी इसमें नादानी है
दहलीज लांघना पाँव की हसरत रही
तोड़ दे बंधन पाँव की ज़ंजीर को कहां हिम्मत थी
रोती सिसकती पर्दों के परे बंदिशों की कहानी है
पाँव की भी अजीब कहानी
थोड़ी संजीदा थोड़ी इसमें नादानी है
साँसों की थरथराहट पाँव से है
कभी इनके नीचे जन्नत तो कभी गर्माहट है
रुकते, चलते, लड़खड़ाते, फिसलते जलते, जमते, थमते सब पाँव हैं
गिरना, उठना, संभलना, उलझना समझना यही जीवन की कहानी है
पाँव की भी अजीब कहानी
थोड़ी संजीदा थोड़ी इसमें नादानी है
* कवि - राजेश कुमार लंगेह