फागुनी बयार : ऋतुचक्र
फागुनी बयार : ऋतुचक्र ....
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परदेसी प्रियतम को बुलाने के सारे जतन बेकार हो गए। नायिका परेशान है। घर में पैसे नहीं हैं और बूढ़ी मां बीमार है। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। उसने निरमोही साजन को ताना मारते हुए कहा -
रोवत अहिन तोहरी माई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
जबसे गया तब से घेरे बिमरिया,
हमरा क हर छिन लगत बाटइ डरिया,
बोल्या जिनि, जउ कुछु होइ जाई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
दिनवां म रोवइं,कहंरि सारी रतिया,
संसिया समाए न,अइसन हलतिया,
देखि-देखि आवइ रोवाई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
पूछत हैं हमसी ललन कहिया अइहैं,
हम अपने लल्ला क मुंह देखि पइहैं?
कब ले ओन्हइं बहकाई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
ठठरी बचल बाटइ माई क देहिया,
कब ले जोहइब्या बलम ओनके रहिया,
अंखिया गइल पथराई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
लल्लू-लल्लू कहिके फूटि-फूटि रोवइं,
ममता क मारी माई आपा खोवइं,
झूंठइ हम फोनवा लगाई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
डागडर से पूंछी त कुछ भी न बोलइ,
बार-बार माई क नसिया टटोलइ,
देवइ न कौनउ दवाई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
बार-बार तोहरा परत बानी पइयां,
मुंह देखइ के हो त घर आवा सइयां,
माई त बस होलीं माई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
रोवत अहिन तोहरी माई पिया,
जिनि कसाई बना यहिं फगुनवां मा।
* रचनाकार : सुरेश मिश्र
( प्रसिद्ध कवि एवं मंच संचालक )