कविता: दरमियां शीशे की दीवार तोड़ देना
कविता: दरमियां शीशे की दीवार तोड़ देना ...
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दरमियां शीशे की दीवार तोड़ देना
मैं रूठ कर उठूं तो थाम लेना
हाथ छूटे तो आवाज लगा लेना
कुछ भी हो बस राबता मत तोड़ देना
दरमियां शीशे की दीवार तोड़ देना
मैं रूठ कर उठूं तो थाम लेना
तुम नशा हो मेरा तलब हर वक़्त रहती है
तुम होती तो फिर कहाँ कोई जरूरत होती है
भर जाए दिल में शक़ ओ शुबहा
मेरा दिल निचोड़ देना
दरमियां शीशे की दीवार तोड़ देना
मैं रूठ कर उठूं तो थाम लेना
तुम्हें सोच में बसाया है
अपना रहनुमा बनाया है
सोच का मायार गिरे तो अहसास दिला देना
दरमियां शीशे की दीवार तोड़ देना
मैं रूठ कर उठूं तो थाम लेना
हो कभी बददिमागी का आलम तो जमीन दिखा देना
हो फितूर का मौसम तो ज़मीर जगा देना
दरमियां शीशे की दीवार तोड़ देना
मैं रूठ कर उठूं तो थाम लेना
वायदा कर लो कि तुम रूठे तो मैं मना लूँ
हाथ छुड़ाना चाहो तो राह में पलकें बिछा दूँ
जब कभी मैं भी हो जाऊं रुसवा तो मना लेना
दरमियां शीशे की दीवार तोड़ देना
मैं रूठ कर उठूं तो थाम लेना
* कवि : राजेश कुमार लंगेह (बीएसएफ)