कविता : दो जून की रोटी
कविता : दो जून की रोटी
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मेरी तुम बात ना मानो तो है शिकवा नहीं कोई।
मुझे भी तुम न पहचानो तो है शिकवा नहीं कोई।।
भुला दो खून के रिश्ते सभी संबंध वो सारे।
कि रिश्तों पर कमां तानो तो है शिकवा नहीं कोई।।
कमाना और खाना है नहीं उतना यहां महंगा।
जुटाना चार पैसे भी नहीं लगता यहां महंगा।
हुआ महंगा अकेलापन,बना दूरी कबिले से,
मगर दो जून की रोटी हमें दिखता यहां महंगा।।
* रचनाकार : विनय शर्मा 'दीप'
( मुंबई )