कविता : अच्छा नहीं लगता
कविता : अच्छा नहीं लगता
*********************
धन से गरीब हो तो,चलता है मेरे भाई,
मन से गरीब होना,अच्छा नहीं लगता।
संतों की ये माटी है, कण-कण से प्यार करिए
लेकिन रक़ीब होना, अच्छा नहीं लगता।
मेरी तरफ न देखो, परवाह नहीं, लेकिन-
'उनके' करीब होना, अच्छा नहीं लगता।
यदि गलत हो तो उसका करिए विरोध हरदम,
सच बात पर भी रोना,अच्छा नहीं लगता।
अपना गुनाह हो तो, कैसे भी झेल जाएं,
गैरों का दर्द ढोना, अच्छा नहीं लगता।
गफलत में सो रहे हैं तो उनको जगाएंगे,
यूं जागकर भी सोना,अच्छा नहीं लगता।
कविता के बिना यूं तो अब जी ही नहीं लगता,
कविता से जहर बोना, अच्छा नहीं लगता।
मां की दुवाएं घर में खुशियां बिखेर देंगी,
उनका यतीम होना, अच्छा नहीं लगता।
* रचनाकार - सुरेश मिश्र ( हास्य-व्यंग्य कवि एवं मंच संचालक ) मुम्बई