वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की कलम से विशेष लेख  "होली : उमंग, उल्लास  तथा प्रेम का पर्व"

वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की कलम से विशेष लेख   "होली : उमंग, उल्लास  तथा प्रेम का पर्व"

वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की कलम से विशेष लेख 

"होली : उमंग, उल्लास  तथा प्रेम का पर्व"
 
    होली..... रंगो का त्यौहार, उमंग का उत्सव,प्रेम का पर्व तथा गीतों का मेला। वास्तव में होली हमारे जीवन के  उल्लास का आईना है। यह एकमात्र पर्व है, जब लोग अपने जीवन की सारी खुशियों को खुलकर प्रकट करते हैं। कोई रंग बिखेरकर खुश होता है,तो कोई गीत गाकर खुशी प्रकट करता हैं फागुन का यह पर्व  फाल्गुन मास में आता है। मगर माघ महीने से ही होली के रंग दिखने शुरु हो जाते हैं। माघ महीने के वसंत पंचमी से ही गावों में पहली बार गुलाल उड़ती है, फूलों की होली खेलनी शुरु हो जाती है। खेतों, खलिहानों, चोपालों पर चंग बजाते  हुये लोग होली के विभिन्न गीतों की लय,  ताल पर नाचते है और ‘लूर’ और ‘घूमर’  लेती हुई नारियाँ फाग गा गाकर खुशी के  अनोखे आनंद में डूब जाती है। ढोल मंजीरों की ध्वनि  पर कई लोग डांडिया रास की  तरह ‘गेर’ नाचते हैं।माघ और फाल्गुन ये दो महिने मदनोत्सव से जुडे हैं। मदन का अर्थ है प्रणय, प्रेम और श्रृंगार। इसलिए इस मौसम में  नृत्य, गायन,श्रृंगार, प्रेम की छटा प्रकृति से लेकर इंसानी चेहरों तक छायी रहती है।

   पवित्र जैन धर्म में भी रंगों के त्योहार होली का विशेष महत्व है। होली से एक दिन पूर्व फाल्गुन मास की तेरस को महान "शत्रुंजय तीर्थ" पर फागण की फेरी होती है। जैन समुदाय के लोग इस दिन शत्रुंजय तीर्थ पर फागण की फेरी लगाने को अत्यंत पवित्र मानते हैं और  इसमें शामिल होते हैं।

    वसंत के आगमन से ही वातावरण में सुगंधी बयार चलने लगती है, पेड़ पौंधे भी  नवपल्लवित होकर होली की खुशी से झूमते नजर आते है।कहते है "जब जिंदगी  सारी खुशियों को स्वयं में समेट कर प्रस्तुति का बहाना मांगती है,तब  सृष्टि हमें होली जैसा  अमूल्य पर्व प्रदान करती हैं"। होली में प्रहलाद की  भक्ति,भगवान शिव का आनंदभाव और श्रीकृष्णका प्रेम घुला है। समूचे भारत से भक्तगणइस पावन भूमि पर  आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित कृष्ण और  राधा की प्रेम रंग भरी लौकिक भावनाओं से  जुड़ी होली को मनानेके लिए मथुरा, वृन्दावन,  नन्द्रग्राम और बरसाने में इकठ्ठे होते हैं। उस समय जो होली गीत गाए जाते है, उनमें से एक बहुप्रचलित गीत है..
 
मेरे जोरै आ स्याम तो पै  रंग डारुं,
रंग तोपै डारूं, गुलाल तोपै डारुं,
अरें तेरे गोरे-गोरे गाल  गुलचा मारूं।
मेरे जोरै...
उड़त गुलाल लाल भये बादर,
अरे बरसाने आज मची होरी।
मेरे जोरै...
और बाद में सब मगन होकर गाते है..
हां हां राम रंग बरसैगो,
रंग बरसै कछु इमरत  बरसै, अरु बरसै कस्तूरी।
 
कृष्ण की भक्तिमयी मीराबाई ने कुछ इस प्रकार गाया है।
"फागुन के दिन चार होली खेल मना रे।
बिन करताल पखावज  बाजै अणहद की झंकार रे,
बिन सुर ताल छतीसूं गावै रोम रणकार रे,
सील संतोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे,
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर बरसत रंग अपार रे,
घर के पट सब खोल दए है, लोक, लाज सब डार रे,
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, चरण कमलबलिहार रे।"
    इस तरह से अनगिनत भक्तिमयी गीतोंकी स्वरलहरियां वातावरण को  भक्ति कीभावना से ओतप्प्रोत कर देती है।  
हमारी सांस्कृतिक  परंपराओ मेंभगवान  विष्णू के नृसिंह रुप,  प्रल्हाद का विश्वास, राजा  हिरण्यकश्यप के  अत्याचार तंतथा होलिका दहन की प्रचलित कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढूंढी, राधा-कृष्णके रास याने ब्रज की होली और कामदेव केपुनर्जन्म से भी जुडु है। कुछ लोगों का मानना हैं कि श्रीकृष्ण ने इसी दिन पूतना राक्षसी का वध किया था। इसी खुशी में गोपियों और ग्वालों ने  रासलीला का रंगखेला था। कई जगह होली में रंग  लगाकर नाच गाकर  शिव के गणों का वेश  धारणकरते है तथा उनकी बरात निकालते है।

* डॉक्टर मंजू लोढ़ा  

       ( मुंबई )