कविता : तुम हो तो सब मुकम्मिल है... 

कविता : तुम हो तो सब मुकम्मिल है... 

कविता : 
           तुम हो तो सब मुकम्मिल है... 
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तुम हो  तो सब मुकम्मिल है 
किसी सहारे की जरूरत ही नहीं
तुम हो तो तलब खुदा की भी नहीं 
तेरे सिवा कोई और जरूरत भी नहीं 
तुम हो तो सब मुकम्मिल है 
किसी सहारे की जरूरत भी नहीं।

आवाज़ें है दिलों की, जो दिल तक जाती हैं 
 ख़ामोशियां भी सबकुछ बयां करती हैं 
नज़रों ने ही किए हैं सब मुश्किल फैसले 
लफ्जों की हमें जरूरत भी नहीं
तुम हो  तो सब मुकम्मिल है ।
किसी सहारे की जरूरत भी नहीं।

मुहब्बत की आरजू है कि रुखसार हो तेरा 
हर तरफ सुर्खियां बिखरे, गुल-ए- गुलजार हो सेहरा 
 तपिश मिटे जो हैं बरसों  की 
  तेरे अक्स के सिवा किसी चीज की जरूरत भी नहीं
तुम हो  तो सब मुकम्मिल है 
किसी सहारे की जरूरत भी नहीं।

जिस्म की तपिश जला ना दे रूह को 
क्यूँ ढूँढती रहती है निगाहें उन निगाहों को 
क्या है जो बदल गया है बता दे अभी साकी 
 मशवरे की  बाद में जरूरत भी नहीं
तुम हो तो सब मुकम्मिल है 
किसी सहारे की जरूरत भी नहीं।

इक बार बह जाने दे जज्बातों को 
वक़्त  ठहर जाए , रोक ले वक़्त को 
मिट जाए रूहों के फ़ासले 
सुकून मिले पल भर का ही सही
सदियों की हमें जरूरत भी नहीं
तुम हो तो सब मुकम्मिल है 
किसी सहारे की जरूरत भी नहीं।

* कवि : राजेश कुमार लंगेह
                     ( जम्मू )