मातृ दिवस पर वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की विशेष रचना " माँ "

मातृ दिवस पर वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की विशेष रचना " माँ "

मातृ दिवस पर वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजू लोढ़ा की विशेष रचना        " माँ "

अब मायके जाने पर 
बाबूजी स्टेशन हवाई अड्डे पर पर लेने नहीं आते,
माँ दरवाजे पर खड़ी खड़ी बाट नहीं जोती(राह नहीं देखती),
बेटी की बलैया नहीं लेती, बिटिया दुबली हो गई है यह नहीं कहती।
भाई-भाभी 
बहुत स्नेह – प्यार से रखते हैं, यथासंभव कोशिश करते हैं मां बाबूजी की कमी नहीं महसूस हो,
लौटने पर साथ में बहुत कुछ देते हैं । पर माता पिता के साथ बिताए  हुए पलों की  स्मृतियां कहां भुलाए से भुलती है!
 याद आती है वह मां के हाथ की बनी मठरी , अचार, दालमौंठ ,  वडी- पापड, मां के हाथों से बनाये  हुए पकवान,
बहुत याद आते हैं वह पल , जब मां जिद कर करके सब की थाली परोसती थी, कई बार तो एक एक कौर अपने हाथों से खिलाया करती थी, बिटिया के
ससुराल लौटने के दस दिन पहले से मां की रसोई में हलचल मचनी शुरू हो जाती थी,बिटिया को
साथ में क्या ले जाना है की
तैयारियां शुरू हो जाती थीं, बाबूजी को बाजार जाकर क्या-क्या लाना है की एक लंबी सूची थमा दी जाती थी, कैसे भूलूं वह अनमोल यादें,बात करते करते मां के
आंखो की कोरें कई बार नम होने लगती थीं,
बाबू जी आते-जाते सिर पर 
हाथ फेरते, आशीर्वाद देते।
रात में सब बैठकर बचपन की
यादों को फिर से जीते,
कभी मन करता वैसे ही रूठ 
जाऊं, जिद करुं जैसे बचपन में किया करती थी,
एक एक चीज के लिये 
उनसे झगड़ती थी, अपनी बात मनवा कर रहती थी,
अपनी नादानी पर अब हंसी आती है,
पर उन दिनों की बातों पर 
उल्लासित भी होती हूं।
 बूढे कांपते हाथों को देखकर उन हाथों की लकीरों को चूमने का मन करता था ,उनके पैरों पर सिर झुकाने को मन करता था,
उनकी सेवा करने को दिल करता था,
मां के रूखे बालों पर तेल लगाना,
उनके बाल बनाना बहुत भाता था,
मां की मां बन जाने को मन करता था,
उन्हें अपने हाथों से कुछ बनाकर खिलाने का मन करता था, मां की सारी इच्छाओं को पूरा करने का मन करता था, मां की मां बनने को मन करता था।
बाबूजी की ऊंगली पकड़कर सैर करने जाती थी, उनसे
ढेरों बातें करती थी, उनकी हिदायतें
वैसी ही होती थीं जैसे मैं वही उनकी  छोटीसी ५साल की  मंजू  हूं।
सच में माता-पिता के लिये हम ताउम्र छोटे ही रहते हैं,
कोई भी बच्चा इतना बड़ा नहीं हो सकता कि
ममता का आंचल उनको ढाप न सके।
अब यादें चलचित्र की भांति आंखों के सामने दिखाई देती हैं। अब किससे लिपटकर अपने सुख दुख की बातें करूं,वह जादुई ममतामई स्पर्श तो न जाने कहां खो गया है।अब मायके आने पर खाली कमरों में मां-बाबा को महसूस करती हूं,
रवानगी से पहले एक एक दीवारों
से लिपट कर कई कई बातें करती हूं, जैसे मां के आंचल से लिपटकर किया करती थी।
न जाने फिर कब आना होगा!
भाभी-भाई के परिवार को ढेरों आशीर्वाद देती हूं,
भाई के भाल पर तिलक  लगाकर 
रक्षासूत्र  बांध ,फिर मिलने का वादा कर चल पड़ती हूं। दरवाजे पर मां को और स्टेशन , हवाई अड्डे पर बाबूजी को ढूंढती हूं, उन्हें मन में महसूस करती हूं।                    

* डॉक्टर मंजू मंगलप्रभात लोढ़ा

                ( मुंबई )