कविता : सहारा
कविता : सहारा
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सहारा बन मुफ़लिसों का
जीवन खुशरंग करले तू,
जगा निर्बल की आशाएं
उन्हें ले संग चल ले तू।
जहाँ उनको मिले मन्ज़िल
न कोई ख़ौफ़ दिल में हो,
दे के दो वक्त की रोटी
उन्हें ही तृप्त कर दे तू।।
जो तन्हा हैं, बेचारे हैं और तन से भी अधूरे हैं।
उन अपाहिजों की बन लाठी
कि उनको पूर्ण कर दे तू।
बनना तू छाँव जब जब धूप अपनों पे पड़े तेरे,
दे के छाया उनको शीतल
उन्हें महफूज़ कर दे तू।
जिनकी रंगहीन आँखे हैं, नज़ारा कुछ भी न देखें,
नज़र बन उनकी आँखों की उन्हें सतरंग कर दे तू।
*कवयित्री : रजनी श्री बेदी
( जयपुर-राजस्थान )