कविता : मौन

कविता : मौन

                  कविता : मौन

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पढ़ के चेहरे अजनबी अब सम्भल जाती हूँ मैं,
इसलिए ही आजकल तो सबको खल जाती हूँ मै।

चाहता है गर बनाना मुझको खुद जैसा कोई ,
मौन रह  किरदार में हर हँस के ढल जाती हूँ मैं।

ये नहीं अंजान हूँ और जानती कुछ भी नहीं,
दर्द दे के दिल को अपने खुद को छल जाती हूँ मैं।

रिश्तों में इंसानियत हो तो कोई समझे मुझे,
बर्फ जैसी देह बनकर कैसे गल जाती हूँ मैं।

ज़िंदा हो के लिख रही है 'रजनी' सब दिल की लगी,
देह लेकर खुद चिता पर रोज़ जल जाती हूँ मैं।


* कवयित्री : रजनी श्री बेदी                          ( जयपुर-राजस्थान )