कजरी-चौताल : बरस उमड़-घुमड़ी के ना ...
कजरी-चौताल : बरस उमड़-घुमड़ी के ना ...
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(वर्षा ऋतु के आगमन की तिथि के कई सप्ताह व्यतीत हो जाने के पश्चात उसकी अनुपस्थिति में सृष्टि के सभी जीव- जंतु,पशु-पक्षी एवं जवान-किसान व्याकुल होकर मेघ की वंदना करते हैं )
बदरा तरसावेला काहें,
बरस उमड़-घुमड़ी के ना।।
रतिया दिनवां उमस सतावै,-2
बरस उमड़-घुमड़ी के ना।।---टेक
पशु-पक्षी मानव सब व्याकुल,
जीव-जन्तु ब्रम्हांड बा आकुल।।
पूरबा रहि-रहि के भरमावैं-2
बरस उमड़-घुमड़ी के ना।।
खेती क जनि हाल विचारा,
धान,मकाई व बज़रा जारा।
उर्दी,सनई खूबै रोवावैं-2
बरस उमड़-घुमड़ी के ना।।
प्रेम पियारा बिछुड़ल बा हे,
नेह-सनेह पिंहकल बा हे।
स्वाति बूंद सपन तरसावै -2
बरस उमड़-घुमड़ी के ना।।
नदिया,नहरा,ताल-तलैया,
कूप व झरना लेईं बलैया।
दीप सागर न गोता लगावैं -2
बरस उमड़-घुमड़ी के ना।।
* कवि : विनय शर्मा 'दीप'
( मुंबई )