होली पर विशेष "फगुआ" : भला कइसे हम खेली रंगनवां ....

होली पर विशेष "फगुआ" : भला कइसे हम खेली रंगनवां ....

होली पर विशेष "फगुआ" : भला कइसे हम खेली रंगनवां ....

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फागुन में सबसे ज्यादा दर्द का एहसास उस विरहिन को होती है जिसके पिया परदेस में हैं और गांव के लोग बार-बार उसके साथ जबरदस्ती होली खेल रहे हैं। कभी सास की झिड़क तो कभी ननद का ताना,कभी ससुर का बदला रूप तो कभी देवर की छेड़छाड़। उसने अपनी सखी से कहा-

मोरा सइयां भइल परदेसी सखी,
भला कइसे हम खेली रंगनवां।


फोनवा करी तउ न फोनवां उठावइं,
'लाइन मा बानू तू', फोनवा बतावइं,
तरसावइं लइ-लइ बहनवां सखी,
भला कइसे हम खेली रंगनवां।

समुझइं न केतनी सही हम बिपतिया,
पइसा न भेजइं,न भेजत हौं पतिया,
बीति गइल बारह महिनवां सखी,
भला कइसे हम खेली रंगनवां।

ननदी-देवरवा हमइं सब चिढ़ावइं,
बार-बार रंगना से हमके भिगावइं,
काटइ दउड़त बा अंगनवां सखी,
भला कइसे हम खेली रंगनवां।

कइसे जियत बानी समुझइं न सइयां,
लागत बा अइहैं न पिय अबकी दइयां,
फिनि टूटे हमरा सपनवां सखी,
भला कइसे हम खेली रंगनवां।

हमरी सखी कुछ जुगुतिया बतावा,
सुगना क हमरे,फगुन मा बोलावा,
ताना मारेला जमनवां सखी,
भला कइसे हम खेली रंगनवां।

जोहत बानी कब से पिय कइ डगरिया,
बीती जाए हमरी अइसइ उमिरिया,
टांगल बा हमरा परनवां सखी,
भला कइसे हम खेली रंगनवां।

कवि : सुरेश मिश्र ( मुंबई )