कविता : मनिहारिन
कविता : मनिहारिन
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हमारे गाँव देश में....
लड्डू और लाडो दोनों ही,
सक्रिय हो जाते हैं....
अक्सर जिद कर जाते हैं....
मनिहारिन को देखकर....
कड़ा-चूंड़ियाँ पहनने को...
मनिहारिन भी...प्रेम से....
लड्डू के हाथों में प्लास्टिक या
धातु के कड़े डालती है और
मुस्कुराते हुए जीवन को,
आगे कठिन और कड़ा बताती है..
कभी-कभार मनिहारिन....!
कड़े को एक साथ जोड़कर
कलाई की लड़ाई भी करवाती है
क्या-क्या और कैसे-कैसे होती है
गुत्थम-गुत्था...जिन्दगी में...
इसको समझाती है.....
झुक जाना पर टूटना मत
लड्डू को ऐसा सिखलाती है
वहीं लाडो को....
रंग-बिरंगी चूड़ियाँ,
कभी प्लास्टिक की तो कभी
कांच की पहनाती है....
नाजुक चूड़ियों से उसे
कोमल रहने का संदेश देती है...
टूट जाने की हद तक,
कोमल रहना सिखलाती है....
चूड़ियों के टूटने पर,
कलाई या हाथ में आई खरोंच से
भावी सास का रिश्ता भी
जोड़ देती है....भविष्य में....
सास का व्यवहार भी पढ़ लेती है
जाहिर है लाडो पराया धन है,
इसका ही संदेश देती है.....
मित्रों गौर करो....!
इस कड़े और चूड़ियों से ही
मनिहारिन..लड्डू और लाडो को..
जीवन दर्शन समझाती है....
लड्डू को श्रम-परिश्रम और
लाडो को श्रृंगार सिखलाती है,
मनुहार सिखलाती है....
मित्रों मनिहारिन कभी नहीं करती
लड्डू और लाडो के....
इस श्रृंगार का हिसाब-किताब
बस याद रखती है....
उनकी चुलबुली-शोख अदाएं
और उनके सवाल-जवाब....
मगन रहें लड्डू और लाडो
रखती मनिहारिन ऐसी ही ईच्छा
जबकि जानती है...वह भी...!
जग में प्रबल है...केवल....
हरि की माया और हरि की ईच्छा
फिर भी हौले से....! धीरे से....
जीवन-दर्शन देकर मनिहारिन...
मुँह में पान दबाए चली जाती है...
मुँह में पान दबाए चली जाती है...
* रचनाकार...
- जितेन्द्र कुमार दुबे
(अपर पुलिस अधीक्षक)
जनपद--कासगंज