तप और दान के प्रवाह का प्रवर्तक है "अक्षय तृतीया"
तप और दान के प्रवाह का प्रवर्तक है "अक्षय तृतीया"
* वरिष्ठ साहित्यकार डॉक्टर मंजु लोढ़ा की कलम से विशेष लेख...
आज का दिन याने अक्षय तृतीया का दिन महामंगलकारी है। इस दिन की महिमा मात्र जैनों में ही नहीं, अजैनों में भी है। वर्ष में कुछ दिन ऐसे हैं जो ‘बिना पूछे मुहूर्त’ कहलाते हैं, वैशाख सुदी तीज की भी यही महिमा है। इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम दान धर्म का प्रारंभ इसी दिन से शुरु हुआ था।
अक्षय तृतीया - यह ऐसा त्यौहार है, जिसका महात्म्य बहुत बड़ा और व्यापक है। हिंदू, वैदिक और जैन परंपराओं में अक्षय तृतीया का महत्व बहुत ज्यादा माना गया है। यह जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि इस पर्व का नाम अक्षय तृतीया क्यों पड़ा? अ-क्षय, मतलब, जिसका क्षय नहीं। अर्थात हर हाल में यथावत। वैशाख मास की इस तृतीया का कभी ‘क्षय’ नही होता, इसीलिए इसे अक्षय तृतीया कहा गया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार तिथियाँ चंद्रमा और नक्षत्रों की गतिनुसार बनती हैं। जैसे चंद्रमा की कला घटती-बढ़ती है वैसे तिथियाँ भी घटती-बढ़ती है। एकम से लेकर अमावस्या, पूनम आदि सभी तिथियों में घट-बढ़ी चलती रहती है किंतु वैशाख सुदी 3 याने आखा तीज की तिथि हजारों वर्षों में आज तक क्षय तिथि नहीं बनी।आज तक यह कभी नहीं घटी-बढ़ी। इसलिये इसे अक्षय तिथि कहा गया है। इसे आखा तीज भी कहा जाता है।
जैन परम्परा में अक्षय तृतीया के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण घटना जुड़ी है। इसलिये जैनों में इस दिन का बहुत अधिक महत्व है। प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का एक वर्ष के कठिन तप के बाद, इसी दिन श्रेयांसकुमार ने (जो कि प्रभु के पपौत्र थे) इक्षु (गन्ने) रस द्वारा पारणा करवाया था। इस तिथि को अक्षय पुण्य प्रदान करने वाली तिथि कहा जाता है। अक्षय तृतीया को दान और तप इन दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होना के कारण ही यह अक्षय बन गया।
भगवान ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन बेला (दो उपवास) की तपस्या के साथ दीक्षा ग्रहण की उनके साथ अन्य 4000 व्यक्तियों ने भी दीक्षा अंगीकार की। इस तपस्या के साथ दो मुख्य बातें थी – अखण्ड मौन तथा पूर्ण निर्जल तप। अखण्ड मौन व्रत धारण कर भगवान ने चऊविहार बेला किया, उसके पश्चात विशेष अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षा के लिए नगर में पधारे, परंतु कहीं भी शुध्द आहार नहीं मिलने के कारण भगवान नगर में भ्रमण करके वापस लौट गये और पुनः आगे का तप ग्रहण किया। इस तरह तप करते हुए 13 महीने और 10 दिन व्यतीत हो गये। अंत में वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन प्रभु हस्तिनापुर पधारे। उस समय बाहुबली के पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार युवराज थे। उन्होंने उसी रात एक विचित्र स्वप्न देखा – ‘सोने के समान दीप्ति वाला सुमेरु पर्व श्यामवर्ण का कांतिहीन सा हो रहा है, मैने अमृतकलश से उसे सींचकर पुन दीप्तिमान बना दिया है’। उसी रात्रि में सुबुद्धि नाम के श्रेष्ठि ने सपना देखा ‘ सूरज से निकली हजारों किरणों को श्रेयांसकुमार ने पुन सुर्य में स्थापित कर दिया, जिससे वह सुरज अत्याधिक चमकने लगा।
उस रात में सोमयश राजा ने भी स्वप्न देखा ‘अनेक शत्रुओं द्वारा घिरे हुए राजा ने श्रेयांस कुमार की सहायता से शत्रु राजा पर विजय प्राप्त कर ली’। स्वप्न के वास्तविक फल को तो कोई जान न सके परंतु सभी ने यही कयास लगाया कि इसके अनुसार आज श्रेयांसकुमार को कोई विशेष लाभ प्राप्त होगा।
राजकुमार श्रेयांसकुमार इस विचित्र सपने के अर्थ पर विचार करते हुये गवाक्ष में बैठे हुये थे। उसी समय में राजमार्ग पर प्रभु ऋषभदेव का आगमन हुआ। हजारों लोग उनके दर्शन हेतु विविध प्रकार की भेंट सामग्री लेकर आ रहे थे। (लेकिन प्रभु के लिये उन भेटों का कोई महत्व नहीं था, वे तो त्यागी थे, शुध्द आहार की खोज में थे) जनता का कोलाहल, बढ़ती भीड़ और उन सबके आगे चलते प्रभु को देखकर श्रेयांसकुमार विचार में पड़ते हैं और सोचते हैं कि ‘आज क्या बात है? यह महामानव कौन आ रहे हैं? इस प्रकार का तपस्वी साधक मैने पहले भी कहीं देखा है? उनकी स्मृतियाँ अतीत में उतरती है, चिन्तन की एकाग्रता बढ़ती है और उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हो जाता है।’ वह जान लेते हैं कि यह मेरे परदादा दीर्घ तपस्वी प्रभु आदेश्वर हैं और शुध्द भिक्षा के लिये इधर पधार रहे हैं। श्रेयांसकुमार महल से नीचे उतरते है और प्रभु को वंदन करके प्रार्थना करते हैं 'पधारो प्रभु! पधारो’ उसी समय राजमहल में इक्षुरस से भरे 108 घड़े आये हैं। शुध्द और निर्दोष वस्तु और वैसी शुध्द भावना कुमार की। श्रेयांसकुमार इक्षुरस द्वारा प्रभु को पारणा करवाते हैं। उस समय देवों ने आकाश में देव दुंदभि बजाई। रत्नों की पंचवर्ण के पुष्पों की, गंधोदक की और दिव्य वस्त्रों की, सुगंधित जल की वृष्टी की। ^अहोदान! अहोदान की घोषणा की। पांच दिव्यों की वर्षा हुई* जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका भी इस तरह एक साल का व्रत रखते हैं (1 दिन उपवास दूसरे दिन बियासणा) और आखा तीज के दिन गन्ने के रस द्वारा पारणा करते हैं। उस दिन रस पीना और मंदिर में गुड़ चढ़ाना शुभ माना जाता है। तप और दान की दिव्य महिमा से आज का दिन (याने आखा तीज) पवित्र हुआ। भगवान ऋषभदेव का प्रथम पारणा होने से इस अवसर्पिणी काल में श्रमणों को भिक्षा देने की विधि का प्रथम ज्ञान देने वाले श्रेयांसकुमार हुये। सचमुच ऋषभदेव के समान उत्तम पात्र, इक्षु रस के समान उत्तम द्रव्य और श्रेयांसकुमार के भाव के समान उत्तम भाव का त्रिवेणी संगम होना अत्यंत ही दुर्लभ है।
तप और दान की आराधना करने वाला अक्षय पद प्राप्त कर सकेगा। यही संदेश इस पर्व में छिपा है। जैनधर्म में मोक्ष प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये है। दान, शील, तप और भाव। अक्षय तृतीया को दान और तप इन दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होना के कारण यह अक्षय बन गया।
यह पर्व हमें संदेश देता है कि हम भी दान-धर्म करें। अपनी जरुरतों को सीमित रख जरुरतमंदों की सहायता करें। भगवान के सिद्धांत अपरिग्रह को अपने जीवन में अपनाये।
‘चिडी चोंच भर ले गई, नदी न घट्यो नीर
दान दिये धन न घटे, कह गये दास कबीर।’
‘जो पानी बाढ़ो नाव में, घर में बाढो धाम
दोनों हाथ उलाछिये, यही सयानो काम।’
कब आखिरी सांस टूट जायेगी, हमें नहीं पता, इसलिये जितना बन सके सत्कार्य में जीवन को लगाएं। हर दिन ऐसा जियें जैसे आज ही अंतिम दिन है, इसलिये कल का इंतजार न करें, आज, अभी, इसी समय जितने अच्छे कार्य, दान-धर्म कर सकते हैं करिये।
‘दुर्लभ मानव जीवन, मिले न बारम्बार
पत्ता टूटा वृक्ष का लगे न फिर से डार।’
वैदिक परम्परा में कहा जाता है कि ऋषि जमदग्नि के पुत्र, परम बलशाली परशुरामजी का जन्म आखा तीज के दिन हुआ। कुछ लोग मानते हैं कि सतगुग का प्रारम्भ भी इसी दिन हुआ था। इसलिये यह युगादि तिथि भी है। एक बार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से आखा तीज पर्व की विशेषता पूछी तो उन्होंने बतलाया – वैशाख शुक्ल तृतीय के पूर्वाह्न में जो यज्ञ, दान, तप आदि पुण्य कार्य किये जाते है उनका फल अक्षय होता है। इसीलिए यह विश्वास है कि इस दिन का मुहुर्त सबसे श्रेष्ठ है। इसलिये विवाह, गृहप्रवेश, व्यापार आदि का शुभारंभ अक्षया तृतीया के दिन बहुत होता है।
गांवों में तो इस दिन सामूहिक विवाह होते हैं। इस दिन सोना खरीदना भी शुभ माना जाता है ताकि घर में लक्ष्मी माँ की कृपा बनी रहे। इस दिन वृंदावन में साल में एक बार बिहारीजी के चरणों के दर्शन होते हैं। इस दिन मंदिरों में बिहारीजी का चंदन श्रृंगार होता है। अक्षया तृतीया को बद्रीनाथ धाम के द्वार भक्तों के लिये खुलते हैं। गंगा-स्नान का भी इस दिन बहुत महत्व है।
अक्षय तृतीया का महत्व क्यों है, जानिए कुछ महत्वपूर्ण जानकारी..
• आज ही के दिन जैनों के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का 13 महीने और 10 दिन के बाद इक्षुरस द्वारा पारणा हुआ था।
• आज ही के दिन मां गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था।
• महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था।
• मां अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था।
• द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था।
• कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था।
• कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था।
• सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था।
• ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही के दिन हुआ था।
• प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही के दिन खोला जाता है।
• बृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रह चरण के दर्शन होते हैं अन्यथा साल भर वो बस्त्र से ढके रहते है।
• इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।
• अक्षय तृतीया अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है।
दान और तप की महिमा का संदेश देने वाला यह पर्व आप सभी के जीवन को भी आध्यात्मिक उँढचाई की ओर ले जाये इसी शुभकामनाओं के साथ।
जय जिनेन्द्र....
* लेखिका- मंजु लोढ़ा
( मुंबई )