बाल कथा : एक था राजा... लेखिका - कविता सिंह
बाल कथा : एक था राजा...
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एक राजा था। उसका मन्त्री भगवान का परम भक्त था। कोई भी बात होती तो वह यही कहता कि भगवान की बड़ी कृपा हो गयी।
एक दिन राजा के बेटे की मृत्यु हो गयी। मृत्यु का समाचार सुनते ही मन्त्री बोल उठा - भगवान की बड़ी कृपा हो गयी।
यह बात राजा को बुरी तो लगी, पर वह चुप रहा। कुछ दिनों के बाद राजा की पत्नी की भी मृत्यु हो गयी। मन्त्री ने कहा - भगवान की बड़ी कृपा हो गयी!
राजा को बड़ा गुस्सा आया, पर उसने गुस्सा पी लिया, कुछ बोला नहीं। एक दिन राजा के पास एक नयी तलवार बनकर आयी। राजा अपनी अंगुली से तलवार की धार देखने लगा तो धार बहुत तेज होने के कारण उसकी अँगुली कट गयी।
मन्त्री पास में ही खड़ा था । वह बोला- भगवान की बड़ी कृपा हो गयी!
अब राजा के भीतर जमा गुस्सा बाहर निकला और उसने तुरन्त मन्त्री को राज्य से बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया और कहा कि मेरे राज्य में अब अन्न-जल ग्रहण मत करना।
मन्त्री बोला - भगवान की बड़ी कृपा हो गयी! मन्त्री अपने घर पर भी नहीं गया, साथ में कोई वस्तु भी नहीं ली और राज्य के बाहर निकल गया।
कुछ दिन बीत गये। एक बार राजा अपने साथियों के साथ शिकार खेलने के लिये जंगल गया। जंगल में एक हिरण का पीछा करते-करते राजा बहुत दूर घने जंगल में निकल गया। उसके सभी साथी बहुत पीछे छूट गये थे। जंगल में खूंखार डाकुओं का एक दल रहता था। उस दिन डाकुओं ने काली देवी को एक मनुष्य की बलि देने का विचार किया हुआ था। संयोग से डाकुओं ने राजा को देख लिया। उन्होंने राजा को पकड़कर बाँध दिया और उनकी बलि देने की तैयारी शुरू कर दी। जब पूरी तैयारी हो गयी, तब डाकुओं के पुरोहित ने राजा से पूछा- तुम्हारा बेटा जीवित है ?
राजा बोला- नहीं, वह मर गया।
पुरोहित ने कहा कि इसका तो हृदय जला हुआ है पुरोहित ने फिर पूछा-तुम्हारी पत्नी जीवित है?
राजा बोला - वह भी मर चुकी है।
पुरोहित ने कहा कि यह तो आधे अंग का है , अत: यह बलि के योग्य नहीं है। परन्तु हो सकता है कि यह मरने के भय से झूठ बोल रहा हो।
पुरोहित ने राजा के शरीर की जाँच की तो देखा कि उसकी अँगुली कटी हुई है।
पुरोहित बोला-अरे! यह तो अंग-भंग है,बलि के योग्य नहीं है ! छोड़ दो इसको ।
डाकुओं ने राजा को छोड़ दिया। राजा अपने घर लौट आया। लौटते ही उसने अपने आदमियों को आज्ञा दी कि हमारा मन्त्री जहाँ भी हो, उसको तुरन्त ढूँढ़कर हमारे पास लाओ। जब तक मन्त्री वापस नहीं आयेगा, तब तक मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा।
राजा के आदमियों ने मन्त्री को ढूँढ़ लिया और उससे तुरन्त राजा के पास वापस चलने की प्रार्थना की।
मन्त्री ने कहा - भगवान की बड़ी कृपा हो गयी!
मन्त्री राजा के सामने उपस्थित हो गया । राजा ने बड़े आदरपूर्वक मन्त्री को बैठाया और अपनी भूल पर पश्चात्ताप करते हुए जंगल वाली घटना सुनाकर कहा कि 'पहले मैं तुम्हारी बात को समझा नहीं। अब समझ में आया कि भगवान की मेरे पर कितनी कृपा थी।भगवान की कृपा से अगर मेरी अँगुली न कटती तो उस दिन मेरा गला कट जाता।परन्तु जब मैंने तुम्हें राज्य से निकाल दिया, तब तुमने कहा कि भगवान की बड़ी कृपा हो गयी तो वह कृपा क्या थी, यह अभी मेरी समझ में नहीं आया ।
मन्त्री बोला-महाराज, जब आप शिकार करने गये, तब मैं भी आपके साथ जंगल में जाता। आपके साथ मैं भी जंगल में बहुत दूर निकल जाता; क्योंकि मेरा घोड़ा आपके घोड़े से कम तेज नहीं है। डाकू लोग आपके साथ मुझको भी पकड़ लेते। आप तो अँगुली कटी होने के कारण बच गये, पर मेरा तो उस दिन गला कट ही जाता।इसलिये भगवान की कृपा से मैं आपके साथ नहीं था। राज्य से बाहर था अत: मरने से बच गया। अब पुन: अपनी जगह वापस आ गया हूँ। यह भगवान की कृपा ही तो है।
- कहानी का सार यह है कि आज कल मनुष्य को सुविधा भोगने की इतनी बुरी आदत हो गयी है कि थोड़ी सी भी विपरीत परिस्थिति में विचलित हो जाता है । कई बार तो भगवान के अस्तित्त्व तक को भी नकारने लगता है । उस परमात्मा ने जब हमें जन्म दिया है तो हमारी जिम्मेदारी भी उसी की है। बस हमें उनकी हर आज्ञा का मान रखना होगा।
* लेखिका - कविता सिंह
( गौतम बुद्ध नगर - नोएडा )